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आद्यं वनमुखं शीतानीलवद्भूधरान्तरे । द्वितीयं च वनमुखं शीता निषधमन्तरां ॥१६४॥ तृतीयं च वनमुखं शीतोदानिषधान्तरे । शीतोदानीलवन्मध्ये चतुर्थं परिकीर्तितम् ॥१६॥
वह इस तरह - प्रथम शीता और नीलवान पर्वत के मध्य में है, दूसरा शीता और निषध पर्वत के बीच में है, तीसरा शीतोदा और निषध पर्वत के बीच में है, तथा चौथा शीतोदा और नीलवान पर्वत के बीच में है । (१६४-१६५)
याम्योत्तरायतानां प्राक्प्रत्यग् विष्कम्भ शालिनाम् । एषां विजयवदैर्घ्यं सर्वेषामपि भाव्यताम् ॥१६६॥ एका कलेषां विष्कम्भो नीलवन्निषधान्तिके । ततो जगत्या चक्रत्वाद्वर्धते जगतीदिशि ॥१६७॥ त्रिसह स्त्री योजनामष्टसप्ततिवर्जिता । शीता शीतोदयोः पार्वे वर्धमानः क्रमादभूत ॥१६८॥ युग्मं ॥
ये सब वनमुख उत्तर दक्षिण में लम्बे हैं, और पूर्व पश्चिम में चौड़े है । इनकी लम्बाई तो विजय की लम्बाई समान है, और चौड़ाई नीलवान् और निषध पर्वत के पास.में एक कला समान है, परन्तु फिर जगती की गोलाई के कारण से जगती की दिशा बढती है, उस क्रम अनुसार बढ़ती जाती है और शीता तथा शीतोदा के पास में पहुँचते तो वह चौड़ाई दो हजार नौ सौ बाईस योजन हो जाती है। (१६६-१६८)
अत्रायमाम्नाय :षोडशानां विजयानां वक्षस्काराष्टकस्य च । षण्णामन्तर्निम्नगानां कुरूणां गजदन्तयोः ॥१६६॥ नीलवन्निषधज्याभ्यां विष्कम्भे शोधिते स्थितम् ।
कलाद्वयं तत्सैकैका विष्कम्भो वनयोर्द्वयोः ॥१७०॥ युग्मं ॥
यहां उसकी इस तरह आम्नाय है - सोलह विजय की चौड़ाई ३५४०६ योजन है, आठ वक्षस्कार पर्वत की चौड़ाई ४००० योजन है, छः अन्तर नदी की चौड़ाई ७५० योजन है, देव कुरु की भी चौड़ाई ५३००० हजार योजन है, विद्युत्प्रभ-सोमनसगजदंत पर्वत की १००० योजन है कुल मिलाकर ६४१५६ योजन होता है । उसमें दोनों वनमुख की चौड़ाई ५८४४ योजन मिलकर एक लाख योजन