________________
(२७६) ततश्च मात्रया वर्द्धमाना सर्वे यथाक्रमम् । . शीता शीतोदयोः पावें जाताः पंचशतोन्नताः ॥१३॥ पंचविशं योजनानां शत तत्र भूवोऽन्तरे ।
तुरंगस्कन्धसंस्थानसंस्थिता इति वर्णिताः ॥१३६॥
उसके बाद धीरे-धीरे क्रमशः बढते शीता और और शीतोदा के पास पहुँचने तक उनकी पांच सौ योजन की ऊँचाई हो जाती है, वहां पर वे पृथ्वी के अन्दर सवा सो योजन गहरे हैं, उनका आकार घोड़े के स्कंध समान कहलाता है। . (१३५-१३६)
स्वस्वह्वानसमाह्वानैकैक वृन्दारकाश्रिताः । . . यथा चित्रगिरौ चित्र स्वाम्येवमपरेष्वपि ॥१३७॥ ...
वे प्रत्येक पर्वत अपने समान नाम वाले देव से अधिष्ठित है, जैसे कि चित्र . नाम के पर्वत पर चित्र नाम का देव अधिष्ठायक है। अन्य पर्वत के सम्बन्ध में भी इसी तरह समझ लेना । (१३७)
अथ चत्वारिचत्वारि कुटान्येषु किलाद्रिषु । भवन्त्येवं चतुःषष्टिरेतानि सर्व संख्यया ॥१३८॥
इन सोलह पर्वतों के चार-चार शिखर होते हैं, इस तरह सब मिलाकर कुल चौंसठ शिखर होते हैं । (१३८)
आद्यं विवक्षितं गिरिप्राग्वर्तिविजयाख्यया । नीलवन्निषधग्राव्णोस्समीपेऽन्यतरस्य तत् ॥१३॥ यः पश्चिमायां विजयो द्वैतीयीकं तदाख्यया । तृतीयं निजनाम्नैव सिद्धायतनमन्तिमम ॥१४०॥ . वियच्चुम्बिचलत्के तु सिद्धयतनबन्धुरम ।
शीता शीतोदयोरन्यतरस्याः सविधे च तत् ॥१४१॥ ....
प्रथम गिरि के पूर्व में विजय नाम का आया है, वह नीलवान और निषध इन दोनों में से एक पर्वत के समीप रहा है, दूसरा गिरि के पश्चिम विजय नाम का आया है, तीसरा गिरि के ही नाम का है, और चौथा सिद्धायतन नाम का है, और अन्तिम गगन तल का स्पर्श कर ध्वज वाला सिद्ध मंदिर से अत्यन्त मनोहर शीता और शतोदा में से एक के समीप में आया है । (१३६-१४१)