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________________ (२७५) शीता और शीतोदा के दोनों किनारे पर चित्र से लेकर देव गिरि तक चारचार वक्ष स्कार पर्वत होते है, ऐसा जानना । (१२७) चित्रश्च ब्रह्मकूटश्च नलिनी कूट इत्यपि । एकशैलश्चेति शीतोत्तरकूले धराधराः ॥१२८॥ त्रिकूटश्च वैश्रमणोऽज्जनो मातज्जनोऽपि च । शीताया दक्षिणतटे वक्षस्काराचला इमे ॥१२६॥ वह इस तरह चित्रकूट, ब्रह्मकूट, नलिनी कूट और एक शैल, ये चारों शीत नदी के उत्तर तट पर आए है । और इसके दक्षिण तट पर त्रिकूट, वैश्रमण, अंजन और मातंजन नामक चार वक्षस्कार पर्वत आए हुए हैं । (१२८-१२६) अंकापाती, पक्ष्मपाती आशीविषः सुखावहः । शीतोदाया याम्यतटे वक्षस्काराद्रयः स्मृताः ॥१३०॥ चन्द्र सूर्यश्च नागश्च देवश्चेति महीघराः । शीतोदाया उदक्कूले सर्व एवं च षोडश ॥१३१॥ अंकापाती, पक्ष्मपाती, आशीविष और सुखावह इन नाम के चार वक्ष स्कार पर्वत शीतोदा नदी के दक्षिण तट पर आए हैं, और इसके उत्तर तट पर चन्द्र, सूर्य, नाग और देव नाम के चार वक्षस्कार पर्वत हुए हैं। इस तरह से कुल मिलाकर सब सोलह होते है । (१३०-१३१) _. .एकतोऽमी नीलवता सज्यन्ते निषधेन वा । . द्वितीयान्तेन शीतोदां शीतां वा संस्पृशन्ति च ॥१३२॥ इन पर्वतों के एक ओर नीलवान अथवा निषध पर्वत का स्पर्श होता है जबकि दूसरी ओर से शीतोदा अथवा शीता नदी से स्पर्श होता है । (१३२) योजनानां पचंशतान्येते विष्कम्भतो मता । सर्वत्र सर्वे सद्दशाः सर्वरत्नमया अपि ॥१३३॥ नील वन्निषधक्ष्माभृत्समीपेऽमी समुन्नताः । चतुः शती योजनानां शतमेकं भुवोऽन्तरे ॥१३४॥ .. इन पर्वतों की चौड़ाई पांच सौ योजन की है, और वे सर्वत्र समान तथा सर्वरत्नमय है । नीलवान् और निषध पर्वतों के समीप में उनकी ऊँचाई चार सौ योजन की है। यहां उनकी पृथ्वी के अन्दर सौ योजन गहराई है । (१३३-१३४)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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