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________________ (२७४) शीतोदाया उदीच्येशु वप्रादिविजयेष्विमाः । याम्या॰ मध्यखण्डेषु राजधान्यो जिनैः स्मृताः ॥१२१॥ विजया वैजयन्ती च जयन्ती चापराजिता । चक्र पुरी खड् पुर्यवन्ध्यायोध्येति नामतः ॥१२२॥ इसी ही तरह शीतोदा के उत्तर किनारे में भी दक्षिणार्द्ध मध्य खण्ड में वप्र आदि आठ विजयो की इस तरह आठ राजधानी हैं - १- "विजया, २वैजयन्ती, ३- जयन्ती ४- अपराजिता, ५- चक्रपुरी ६- खड्गपुरी ७- अवन्ध्या और ८- अयोध्या । (१२१-१२२) विजयेष्वेषु मनुजाः पंचचापशतोन्नताः । . जघन्योत्कर्षतः पूर्वकोटीक्षुल्लभवायुषः ॥१२३॥ नानासंहनना नानासंस्थाना विविधाशयाः ।. . मृत्वा नानागतिं यान्ति स्वस्वकर्मानुसारतः ॥१२४॥ युग्मं ॥ . इन सब विजयों में जो मनुष्य निवास करते हैं, वे ऊँचाई में पांच सौ धनुष्य के होते हैं, और इनका उत्कृष्ट आयुष्य करोड़ पूर्व का होता है। और जघन्य क्षुल्लक (थोड़े समय का) जन्म का होता है । इन मनुष्यों का संघयण और संस्थान विविध प्रकार का है और इनके आशय (भावना) भी विविध प्रकार की होती है । मृत्यु के बाद वे अपने-अपने कर्मों के अनुसार से विविध प्रकार की गति में जन्म लेते हैं । (१२३-१२४) कालाः सदात्र दुःषमसुषामारकसन्निभः । साम्प्रतीन भरतवत् गर्भापत्यावनादिकम् ॥१२५॥ आहारस्यान्तरे माने चानयत्यं तथैव हि । ततश्चतुःशतगुणं मानं च स्यात् गृहादिषु ॥१२६॥ . वहां हमेशा दुषम सुषमा काल रहता है, और वहां गर्म धारण, अपत्य पालन आदि सब वर्तमान भरतक्षेत्र के समान, वे कितने अन्तर में आहार लेते हैं तथा कितने प्रमाण में लेते हैं ? इत्यादि बात का कोई नियम नहीं है । इनके घर आदि का प्रमाण भरतक्षेत्र के घर आदि से चार सौ गुणा होता है । (१२५-१२६) चित्राद्यान् देव शैलांस्तान् वक्षस्कार गिरिन् विदुः । चतुरश्चतुरश्शीता शीतोदयोस्तटद्वये ॥१२७॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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