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वैताढय पर्वत के द्वारा बने विजय के दो-दो विभाग अनुक्रम से दक्षिणार्ध और उत्तरार्ध रूप में जाना जाता है, जैसे कि दक्षिण कच्छार्ध और उत्तर कच्छार्ध कहलाता है । (८६)
अर्धस्य तस्यैकै कस्य सहस्राण्यष्टदीर्घता । योजनानां द्विशत्येकसप्तत्याढया तथा कला ॥८७॥
इस तरह प्रत्येक अर्ध विजय की लम्बाई आठ हजार दो सौ इकहत्तर योजन और एक कला कहा है । (८७)
नीलवन्निषधक्ष्माभृद्दक्षिणोदग्नितम्बयोः । शैलो वृषभकूटः स्याद्वि जयं विजयं प्रति ॥८॥
और नीलवान पर्वत के दक्षिण में तथा निषध पर्वत की उत्तर में इस तरह दोनों तरफ प्रत्येक विजय में वृषभ कूट पर्वत है । (८८)
तस्यचागुरूभयतः कुण्डमेकैकमस्ति तत् । सिन्धु कुण्डं पश्चिमतो गंगाकुण्डं च पूर्वतः ॥८६॥
उस पर्वत के दोनों तरफ एक-एक कुण्ड है । पश्चिम दिशा में सिन्धु कुण्ड है और पूर्व दिशा में गंगा कुण्ड है । (८६) ।
तेच षष्टिं योजनानि विष्कम्भयामतो मते । किंचिदूननवत्याढयं शतं च परिवेषतः ॥६०॥ योजनानि दशोद्विद्वे विमलोदक पूरिते । द्वीपेनौकै के न रम्ये स्वदेवीभवनस्पृशा ॥६१॥ युग्मं ॥
दोनों कुण्ड साठ-साठ योजन लम्बे-चौड़े हैं । इनका घेराव एक सौ नब्बे योजन में कुछ कम है, और उनकी गहराई दस योजन है, वे निर्मल जल से भरे हुए हैं । और उन प्रत्येक में एक एक द्वीप होता है उसमें अपनी-अपनी देवी का भवन आया है । (६०-६१)
एताभ्यामथ कुण्डाभ्यां सिन्धु गंगा च निम्नगे। दक्षिणेन तोरणेन निर्गते दक्षिणामुखे ॥१२॥ अपान्तरालेऽनेकाभिनंदीभिः पथिसंश्रिते । वैताढ यसविधे सप्तनदीसहस्रसेविते ॥६॥