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शीतायाश्चोत्तरतटे वैताढयाः विजयेषु ये । .. तत्रामि योग्य श्रेण्यो यास्ता ईशान सुरेशितुः ॥७॥
शीता के उत्तर तट पर के विजय है, उसके वैताढय पर्वत पर जो श्रेणिया हैं, वे ईशानेन्द्र के अभियोगी देवों की है, ऐसा समझना । (७६) .
सर्वेऽप्यमी नव नव कूटालंकृत मौलयः । मानं स्वरूपं कूटानामुक्त वैताढय कूटवत् ॥८॥
ये सर्व वैताढय नौ-नौ शिखरों से शोभायमान हो रहे हैं । इसका मान और स्वरूप पूर्वोक्त भरत के शिखर अनुसार है । (८०).
पूर्वस्यां प्रथमं कूट सिद्धायतनसंज्ञितम् । .. ततः स्वस्वविजयार्धकूटं दक्षिणशब्दयूक् ॥१॥ खण्डप्रपातकूटं स्यानमाणिभद्रं ततः परम् । वैताढयं पूर्णभद्रं च तमिस्रगुहामित्यपि ॥२॥ ततः स्वस्वविजयार्धकूटमुत्तरशब्दयुक्त ।
वैताढयेष्वन्तिमं कूटज्ञेयं वैश्रमणाभिधम् ॥८३॥
प्रथम शिखर पूर्व दिशा में 'सिद्धायतन' नाम का, दूसरा उस विजय का दक्षिणार्ध कूट है, तीसरा खंड प्रपात है, चौथा मणि भद्र है, पांचवा वैताढय है, छठा पूर्णभद्र है, सातवा तमिस्र गुह, आठवां उसं विजय का उत्तरार्ध कूट है, और नौंवा वैश्रमण है । (८१-८३)
वैताढयेषु हि सर्वेषु कूटं द्वितीयमष्टमम् । स्याद्दक्षिणोत्तरस्वस्वविजयार्धाभिधं कमात् ॥४॥ यथादक्षिणकच्छार्धकूटं द्वितीयमष्टमम् ॥ भवेदुत्तरकच्छार्थ कच्छवैताढय पर्वते ॥५॥
यहां अन्य और आठ में इस तरह जो दो शिखरों के नाम कहे हैं उसमें जिस जिस विजय का वह शिखर हो, उस-उस विजय का नाम उसमें मिलाना चाहिए। जैसे कि कच्छ' नामक विजय का वैताढय का दूसरा शिखर दक्षिण कच्छार्ध कूट और इसका आठवां शिखर 'उत्तराकच्छार्ध कूट' ये नाम होता है । (८४-८५)
अर्धे द्वे द्वे विजयानां वैताढय गिरिणा कृते । यथा दक्षिण कच्छार्थ तथा कच्छार्ध मुत्तरम् ॥८६॥