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व्यास पांच सौ योजन का गिनना चाहिए और इससे शीता के व्यास करते विदेह का जितनी चौड़ाई रहे उसका आधा करने से जो संख्या आये वह अन्तर नदी तथा वक्षस्कार पर्वत और विजय की लम्बाई आती है। (३३६८४ योजन ४ कला ५०० योजन २ = १६५६२ यो० २ कला) (६६-७०)
एते च विजयाः सर्वे वैताढयैर्विहिता द्विधा । पूर्वापरायत्ततया स्थितैः रजतकान्तिभिः ॥७३॥
इन सब विजयों को पूर्व पश्चिम लम्बे रजत के वैताढय पर्वत ने दो विभागों में बांट दिया है । (७३)
स्वरूपतोऽमी भरत वैताढयस्य सहोदराः ।
आयामतश्च विजय विष्कम्भ' सद्दश इमे ॥४॥
इन वैताढयों का स्वरूप भरत क्षेत्र के वैताढय समान है, और इसकी लम्बाई विजय की चौड़ाई समान है । (७४)
समक्षेत्र स्थितेश्चैषा धनुर्बाहाद्यसम्भवः । मूलादूर्ध्वं योजनानां दशानां समतिक्रमे ॥७॥ एषु द्वे खेचरश्रेण्यौ तर्यो विद्याभूतामिह । पुराणि पंच पंच शत् प्रत्येकं पार्श्वयोर्द्वयोः ॥७६॥ युग्मं ॥
चोरस जमी होने के कारण इनका शर अथवा बाहा आदि नहीं होता । इनको मूल में से दश योजन ऊंचे चढते दो विद्याधरो की श्रेणियां आती है । प्रत्येक श्रेणि में दोनो तरफ विद्याधरों के पचपन-पचपन नगर होते हैं । (७५-७६)
ततः पुनर्योजनां दशानां समतिक मे ।
शक्रेशानामियोग्यानां द्वे श्रेण्यौ पार्श्वयोर्द्वयोः ॥७७॥
वहां से दस योजन आगे बढ़ते दोनो तरफ सौ धर्मेन्द्र तथा इशानेन्द्र के अभियोगी देवों (सेवक) की दो श्रेणिया आई है । (७७)
तत्रापि - शीताया दक्षिण तटे वैताढयाः विषयेषु ये । ... तत्राभियोग्य श्रेण्यो यास्ताः सौधर्मस्य वज्रिणः ।।७८॥
इसमें भी शीता नदी के दक्षिण तट पर के विजय के वैताढय पर जो श्रेणियां है वे सौधर्मेन्द्र के अभियोगी (सेवक) देवों की है । (७८)