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( २५६) तत्र मेरोरूत्तर स्यामुत्तराः कुरवः स्मृताः । गन्धमादनसन्माल्यवतोरन्तर्गिरीन्द्रयोः ॥१५॥
मेरू पर्वत की उत्तर दिशा के विभाग में उत्तर कुरु है वह गंध मादन और माल्यवान पर्वतों के मध्य में है।
दक्षिणस्यां पुनर्देवकुखः सुरभूभृतः । विद्युत्प्रभसौमनसगजदन्तनगान्तरे ॥१६॥
मेरू पर्वत की दक्षिण दिशा के विभाग में देव कुरु है । वह विद्युत्प्रभ और सौमनस नामक दो गजदंत पर्वतों के मध्य में है । (१६)
मेरोश्च पूर्वतः पूर्वविदेहाः परिकीर्तिताः । - तथापरविदेहाश्च मेरोः पश्चिमतस्स्मृताः ॥१७॥
मेरू पर्वत की पूर्व दिशा के अन्दर पूर्व विदेह है, और पश्चिम दिशा के अन्दर पश्चिम विदेह क्षेत्र है । (१७)
शीतया सरिता पूर्वविदेहा विहिता द्विधा ।
कृताश्शीतोदयाप्येवं द्विधापरविदेहकाः ॥१८॥ • पूर्व विदेह के शीता नदी के द्वारा दो विभाग होते हैं, और पश्चिम विदेह के शीतोदा नदी से दो विभाग होते है । (१८)
अष्टौ पूर्वविदेहेशु शीतोत्तरतटे किल ।
भवन्ति विजयाश्चक्रिजेयषट्खण्डलक्षिताः ॥१६॥ - पूर्व विदेह में शीता नदी के उत्तर किनारे में चक्रवर्ती के जीतने योग्य छ: खंड से युक्त आठ विजय है । (१६)
अन्तर्नदीभिस्तिसृभिर्वक्षस्काराचलैस्तथा । चतुर्भिः कृतसीमानो भवन्तीत्येवमष्ट ते ॥२०॥
इन आठ विजयों की सीमा तीन अन्तर नदी है । और चार वक्षस्कार पर्वतो के द्वारा बनती है । (२०)
शीताया दक्षिणतटे तथैव विजयाष्टकम् । अष्टाष्टौ विजया एवं शीतोदाकूलयोरपि ॥२१॥
शीता नदी के दक्षिण किनारे पर भी इसी तरह आठ विजय हैं, उसी ही तरह शीतोदा नदी के दोनों किनारे पर आठ-आठ विजय हैं । (२१)