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इसी ही तरह से 'शर' भी दो होगा, एक उत्तर तरफ का और दूसरा दक्षिण तरफ का होगा । उसी तरह प्रत्येक 'वाहा' भी पूर्व तरफ, पश्चिम तरफ का, इस तरह दो प्रकार का होता है । (७)
लक्षार्ध योजनान्यस्य विशिखौ दक्षिणोत्तरौ । दाक्षिणात्येतरधनुःपृष्टमानमथबुवे . ॥८॥ अष्टपंचाशत्सहस्राधिकं योजनलक्षकम् ।... शतं त्रयोदशयुतं सार्धाः कलाश्च षोडश ॥६॥
एक उत्तर तरफ का और दूसरा दक्षिण तरफ का इस तरह दोनो 'शर' पचास हजार योजन के हैं तथा इसके दक्षिण और उत्तर तरफ के धनुः पृष्ट का प्रमाण एक लाख अट्ठावन हजार एक सौ तेरह योजन और ऊपर साढ़े सोलह कला का कहा है । (८-६)
सहस्राः षोडशशतान्यष्टौ त्र्यशीतिरेकिका । बाहा त्रयोदश कलाः कलातुर्यांशसंयुताः ॥१०॥
इस क्षेत्र की प्रत्येक 'बाहा' सोलह हजार आठ सौ तिरासी योजन और सवा तेरह कला से युक्त है । (१०) .
शतानि त्रीणि कोटीनां कोटयः सप्तविंशतिः । लक्षाश्चतुर्दश तथा सहस्राण्यष्टसप्ततिः ॥११॥ पंचभिश्चाभ्यधिकानि योजनानां शतानि षट् । कलाद्वय च विकला एकादश तथोपरि ॥१२॥ एतन्महाविदेहस्य गणितं प्रतरात्मकम् । .. भव्य लोकोपकाराय तत्वविद्भिनिरूपितम् ॥१३॥ विशेषांक
इस महाविदेह क्षेत्र का प्रतरात्मक गणित' तीन सौ सताइस करोड़, चौदह लाख, अठहत्तर हजार, छ: सौ पांच योजन दो कला और ऊपर ग्यारह विकला, भव्य जीव के उपकार के लिए तत्वज्ञानी महापुरुषों ने कहा है । (११-१३)
महाविदेह क्षेत्रं तच्चतुर्धा वर्णितं जिनैः ।। पूर्वापरविदेहाश्च द्विविधा कुखस्तथा ॥१४॥
इस महाविदेह क्षेत्र को जिनेश्वर भगवन्त ने चार विभाग से वर्णन किया है, १- पूर्व विदेह, २- पश्चिम विदेह, ३- उत्तर कुरु और ४- देव कुरु । (१४)