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________________ (२५७) सत्रहवां सर्ग मध्ये द्वयोपैर्वितयोर्नीलवन्निषधाख्ययोः । भात्यायतचतुरस्र क्षेत्रं महाविदेहकम् ॥१॥ नीलवान पर्वत और निषध पर्वत नामक दोनों पर्वतों के मध्य में महाविदेह नाम का समचोरस क्षेत्र आया है । (१) । सर्वक्षेत्र गुरुत्वान्महाप्रमाणां गजनयुतत्वात् वा। इदमुत महाविदेहाभिधसुरयोगान्महा विदेहाख्यम् ॥२॥ सर्व क्षेत्रों में बड़ा-महान् होने से अथवा महाविदेह नाम का अधिष्ठायक देव होने से, या महान शरीर वाले मनुष्य का वहां निवास होने से, इसका 'महाविदेह' ऐसा योग्य नाम पड़ा है । (२) .. त्रयस्त्रिंशद्योजनानां सहस्राणि च षट्शती । युक्ता चतुरशीत्यास्य व्यासः कला चतुष्टयम् ॥३॥ इस महाविदेह क्षेत्र का विष्कंभ-चौड़ाई में तैंतीस हजार छ: सौ चौरासी योजन और चार कला का है । (३). . वर्षवर्षधराद्रीणामन्येषा तु जिनेश्वरैः ।। अन्त्यप्रदेशपंक्तिर्या सा जीवति निरूपिता ॥४॥ अस्मिन्क्षेत्रे पुनर्मध्यप्रदेशपंक्तिरायता । सा प्रत्यंचा भवेत् पूर्णलक्षयोजनसम्मिता ॥५॥ . अन्य क्षेत्र और वर्षघर पर्वत को तो अन्त्य प्रदेश की पंक्ति को श्री जिनेश्वर भगवन्तो ने 'जीवा' कही है । परन्तु इस क्षेत्र में तो मध्य प्रदेश की जो एक लाख योजन की दीर्घ पंक्ति कही है उसे ही जीवा- प्रत्यचा रूप में कहा है । (४-५) । ततश्चापेक्ष्य तां जीवां धनुःषष्टद्वयं भवेत् । तत्रैकंदक्षिणाब्धि स्पृगुत्तराब्धिश्रितं परम् ॥६॥ और इससे, उस 'जीवा' की अपेक्षा से दो 'धनुः पष्ट' होता है, एक दक्षिण समुद्र को स्पर्श करता है और दूसरा उत्तर समुद्र को स्पर्श करता है । (६) एवं शरोऽपि द्विविधो दक्षिणोत्तरभेदतः ।। पूर्वापरैवं बाहापि. प्रत्येकं द्विविधा भवेत् ॥७॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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