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(२५६) पर्वत के नीचे पूर्व सन्मुख चलती है । वहां पूर्व विदेह को दो विभाग में बटवारा करती, मार्ग में प्रत्येक विजय में से निकलती अट्ठाईस-अट्ठाईस हजार नदियों को साथ में लेकर, इसी तरह कुल पांच लाख बत्तीस हजार नदियों के परिवार सहित विजय द्वार के नीचे जगती के तट भेदन कर पूर्व समुद्र में मिलती है । (४४७-४५२)
अस्या बार्धि प्रवेशान्तमारभ्य हृदनिर्गमात् । शीतोदया समं सर्वं ज्ञातव्यमविशेषितम् ॥४५३॥...
"इति निषध पर्वतः प्रसंगात् शीतस्वरूपं च ।।" - इस शीता नदी का सरोवर में से निकल कर समुद्र में मिलने तक का समग्र वृत्तान्त अल्प मात्र भी फेर फार बिना शीतोदा नदी के समान जानना चाहिए । (४५३) 'इस तरह से निषध पर्वत का और प्रसंग के कारण शीता नदी का स्वरूप कहा गया है।'
हिमवता महता च कनीयसा जलधिना निषधेन च यत्र त्रिधा ।.. तदिह दक्षिण पार्श्व मिहोदितम् बहुविधं नियतानिय तारकैः ॥४५४॥
इस तरह से महा हिमवंत और लघु हिमवंत. तथा समुद्र निषध पर्वत से तीन-तीन विभाग होने के कारण तथा नियत, अनियत, आराओं के कारण बहु प्रकार का इस दक्षिण ओर के विभाग का वर्णन किया गया है । (४५४).
विश्वाश्चर्यद कीर्ति कीर्ति विजय श्री वाचकेनद्रान्तिष .... द्राज श्री तनयोऽतनिष्ट विनय श्री तेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे, सर्गो निर्गलितार्थ सुभगः पूर्णः सुखं षोडशः ॥४५५॥
. इति षोडशः सर्गः। सम्पूर्ण विश्व को आश्चर्य चकित करने वाले कीर्ति कारी श्री कीर्ति विजय वाचक वर्य के अन्तेवासी तथा माता राज श्री और पिता तेजपाल के सुपुत्र विनय विजय जी ने जगत के निश्चित स्वरूप को प्रकाशन करने में दीपक समान रचे हुए इस ग्रन्थ में वर्णन किये अर्थ समूह से मनोहर यह सोलहवां सर्ग विघ्न रहित सम्पूर्ण हुआ है । (४४५)
- सोलहवां सर्ग समाप्त -