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श्रिताम्भोधि प्रवेशे च मूलत: सर्वसंख्यया । नदीनां पंचभिः लक्षैः सद्वात्रिंशत्सहस्रकैः ॥४४०॥ . अधो जयन्तद्वारस्य विभिद्य जगतीतटम् । प्रविष्टा पश्चिमाम्भोधौ शीतोदाख्या महानदी ॥४४१॥ कुलकं
इस तिगिछि सरोवर के उत्तर दिशा के तोरण में से शीतोदा नाम की नदी निकलती है और वह उत्तर की ओर बहती है, तथा पूर्व में कहा है उतना ही पर्वत पर बहती है । वहां से विशाल धारा रूप में शीतोदा कुंड में गिरती है, वहां से उसके उत्तर की तरफ के तोरण में से निकल कर उत्तर की ओर बहती है। वहां प्रपंची मनुष्य के समान उत्तर कुरुक्षेत्र के पांच सरोवरों का दो विभाग में भेदन करती, मार्ग में आने वाली चौरासी हजार नदियों को मिलाकर साथ में लेकर अनुक्रम से देव कुरुक्षेत्र के आखिर में भद्रशाल वनं में पहुँचती है। वहां सुमेरू पर्वत से दो योजन दूर रहकर कामातुर स्त्री के समान उसके सन्मुख जाकर विद्युत्प्रभ नाम के वक्षस्कार पर्वत के नीचे के भाग से लज्जित, अभिसारिका के समान, वापिस मुड़कर अपर विदेह को दो भागों में बटवारा करती, एक-एक विजय की अट्ठाईस, अट्ठाईस हजार नदियों को लेकर, इस तरह प्रारम्भ से लेकर समुद्र में मिलने तक कुल पांच लाख, बत्तीस हजार नदियों के परिवार सहित बहती हुई, जयन्त द्वार के नीचे जगती किले को भेदन करती आखिर में यह महानदी पश्चिम समुद्र में मिलती है । (४३३ से ४४१) .
पंचाशद्योजनान्यस्या विष्कम्भो हृदनिर्गमे । एकं योजनमुद्वेधः स कुण्डनिर्गमावधिः ॥४४२॥ व्यासेऽशीतिश्च वर्धन्ते धनंषि प्रतियोजनम् । तत् पंचयोजनशतव्यासेयं वार्धिसंगमे ॥४४३॥ तत्रोद्वेधो योजनानि दशैतस्याश्च जिबिका ।.. पंचाशद्विस्टता द्वे च योजने मेदुरायता ॥४४४॥
कुंड में गिरने के पहले इसकी गहराई एक योजन की है और सरोवर में से निकलते समय इसकी चौड़ाई पचास योजन की कही है, जो उसके बाद प्रत्येक योजन में अस्सी-अस्सी धनुष्य चौड़ाई में बढ़ती जाती है। आखिर समुद्र में मिलते समय पांच सौ योजन की हो जाती है और उस स्थान पर इसकी गहराई