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(२५३) हरिवर्ष पूर्वभागं विभजन्ती द्विधाकिल । एकेन योजनेनार्वाक् गन्धापातिधराधरात् ॥४३०॥ चलिता प्राङ्मुखीभूय विशतिप्राच्यवारिधौ । षट् पंचाशच्छैवलिनीसहस्त्रैः परिवारिता ॥४३१॥ कलापकम्
इस तिगिंछ हृद (सरोवर) के दक्षिण ओर के तोरण में से हरिसलिता नामक नदी निकलती है। वहां से निकल कर दक्षिण की ओर सात हजार, चार सौ इक्कीस योजन और एक कला पर्वत पर बहती है । वहां से हरिसलिल नामक कुंड में गिरती है, इसमें से वापिस दक्षिण ओर के तोरण में से निकल कर बहती हुई पूर्व हरिवर्ष क्षेत्र को दो विभाग- बंटवारा करती गंधापति पर्वत से एक योजन प्रमाण दूर से ही पूर्व की ओर बहती है। मार्ग में छप्पन हजार नदियां मिलती हैं। उस परिवार को साथ में लेकर पूर्व समुद्र में मिलती है । (४२७-४३१)
प्रमाणंजिह्वि काकु ण्डद्वीपप्रवाहवृद्धिगम् । हरिकान्तासमं सर्वं ज्ञेयमत्राविशेषितम् ॥४३२॥
इसकी जलधारा, कुंड, द्वीप और प्रवाह की वृद्धि सम्बन्धी सर्व स्वरूप अल्पमात्र भी फेरफार बिना हरिकांता नदी के समान समझना । (४३२) : औतराहतोरणेन तिग्रि छिहदतस्ततः ।
शीतोदेति निर्झरिणी निर्गतोत्तरसन्मुखी ॥४३३॥ प्रागुक्तमानमुल्लंघ्य क्षेत्रक्षितिधरोपरि । शीतोदा कुण्डे पतति वज्र जिबिकया नगात् ॥४३४॥ युग्मं ॥ कुण्डादस्मादौत्तराहतोरणेनोत्तरा मुखी । यान्ती कुरुह्वदान् पंच खलेन कुर्वती द्विधा ॥४३५॥ नदी सहस्त्रैश्चतुरशील्या पथ्याश्रिता क्रमात् । यान्ती देवकु रुपान्ते भद्रसालवनान्तरे ॥४३६।। याववाभ्यां योजनाभ्यां सुमेरूर्दूरतः स्थितः । तावत्तत्संमुखं याता कामुकीव रसाकुला ॥४३७॥ वक्षस्कारगिरेविद्युत्प्रभस्याधोविभागतः । परावृत्ता पश्चिमातो लज्जितेवाभिसारिका ॥४३८॥ द्वेधापरविदेहांश्च कुर्वती सरितां श्रिता । अष्टाविंशत्या सहस्ररेकैक विजयोद्गतैः ॥४३६॥