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________________ (२५०) ये युगलिये चौंसठ दिन तक अपने संतति का पालन पोषण करके मृत्यु प्राप्त कर स्वर्ग में ही जाते है । और वहां हमेशा सुषमा काल रहता है । (४०७) क्षेत्रानुभावः सर्व च बल संहननादिकम् । अनन्त गुण पर्यायं ज्ञेयं हैमवतादिह ॥४०८॥ इति हरिवर्ष क्षेत्रम् ॥ - इस क्षेत्र का प्रभाव, वहां के जीवों का बल, संघयण आदि सर्व वस्तु हेमवंत क्षेत्र की वस्तु से अनन्त गुणा पर्याय वाला होता है । (४०८) हरिवर्ष क्षेत्र का स्वरूप कहा है। हरिवर्षस्यात्तरान्ते निषधो नाम पर्वतः । ... स चतुर्योजन शतोऽत्तुंगो रक्तसुवर्णजः ॥४०॥ योजनानां शतं भूमौ मग्नोऽन्तस्स्पृष्टवारिधिः ।। दाक्षिणात्या भित्तिरिव महाविदेह वेश्मनः ॥४१०॥ युग्मं ॥ इस हरिवर्ष क्षेत्र की उत्तर दिशा के अन्तिम भाग में निषध नाम का लाल सुवर्ण का पर्वत है । वह चार सौ योजन ऊंचा एक सौ योजन पृथ्वी के अन्दर रहा, और दोनों अन्तिम किनारे समुद्र को स्पर्श कर रहा है। वह मानो महाविदेह क्षेत्र रूपी घर की दक्षिण की ओर दीवार न हो इस तरह लगता है । (४०६-४१०) योजनानां सहस्राणि षोडशाष्टौ शतानि च । द्विचत्वारिंशदाढायानिविष्कम्भोऽस्यकलाद्वयम् ॥४११॥ इस पर्वत का विष्कंभ सोलह हजार आठ सौ बयालीस योजन और दो कला का है । (४१० त्रयस्त्रिशत्सहस्राणि सप्तपंचाशता युतम् ।। शतमेकं सप्तदश कलाश्च निषधे शरः ॥४१२॥ इस निषध पर्वत का 'शर' तैंतीस हजार एक सौ सत्तावन योजन और सत्रह कला का है । (४१२) योजनानां सहस्राणि चतुर्नवतिरेव च । षट्पंचाशं शतमेकं प्रत्यंचास्य कलाद्वयम् ॥४१३॥ और इसकी 'ज्या' चौरानवे हजार एक सौ छप्पन योजन और दो कला का कहा है । (४१३)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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