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________________ (२४६) प्रवाह जिबिका कुण्ड द्वीपादिषु भवेदिह । विष्कम्भदैयोद्धधादि रोहितांशासमं समम ॥३८०॥ इसका प्रवाह, धारा, कुंड द्वीप आदि सर्व लम्बाई-चौड़ाई और गहराई आदि सारी वस्तुएं रोहितांशा नदी के समान जानना । (३८०) औत्तराहतोरणेन महापद्म हृदात्ततः । हरिकान्तेति तटिनी निर्गतोत्तरसन्मुखी ॥३८१॥ इस महापद्म सरोवर के उत्तर तरफ के तोरण में से हरिकान्ता नामक नदी निकलती है और वह उत्तर की ओर बहती है । (३८१) पूर्वोक्तमानमुल्लंघ्य गिरि सोत्तरसन्मुखम् । हरिकान्ता प्रपाताख्ये कुण्डे पतति जिव्हया ॥३२॥ . . पूर्व कथन अनुसार पर्वत पर उत्तर की ओर बहती वह नदी हरिकान्ता प्रपात नामक कुंड में विशाल धारा रूप में गिरती है । (३८२) . औत्तराहतोरणेन तस्मान्निर्गत्य कुण्डतः । अष्टाविंशत्या सहस्त्रैः नदीभिः पथि संभृतां ॥३८३॥ गन्धापातिनम प्राप्तान्तरित योजनेन सा । स्मृत प्रयोजने वेतः प्रस्थिता पश्चिमा मुखी ॥३८४॥ अष्टाविंशत्या सहस्त्रैः नदीभिः पुनराश्रिता । एवं नदीनां षट्पंचाशता सहस्रकैर्वृता ॥३८५॥ हरिवर्ष पश्चिमा द्वेधा विदधती किल । . अधो विभिद्य जगतीं पतिता पश्चिमाम्बुधौ ॥३८६॥ उस कुंड के उत्तर तोरण में से वापिस निकलकर उत्तर की ओर बहती है। मार्ग में अट्ठाईस हजार नदियां मिलती हैं। उन नदियों का परिवार लेकर गंधापाती पर्वत से एक योजन दूर रहकर, मानो कुछ काम याद आया हो, इस तरह पश्चिम की तरफ घूमकर पुनः दूसरी अट्ठाईस हजार नदियां मिलती है । उनसे घिरी हुई अर्थात् छप्पन हजार नदियों से संयुक्त होकर पश्चिमार्द्ध हरिवर्ष को दो विभाग में बांटते, जगती के किले के नीचे भाग को भेदन कर वह नदी पश्चिम समुद्र को मिलती है । (३८३-३८६)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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