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उस महापद्म सरोवर के दक्षिण दिशा के तोरण में होकर रोहिता नामक नदी निकलकर दक्षिण दिशा में बहती है । (३७३)
सहस्रं योजनानां षट्शती पंचसमन्विताम् । कलाः पंच दक्षिणस्यां सा गत्वा पर्वतोपरि ॥३७४॥ . । वजिढिकया शैलात् प्रवाहेण पतत्यधः ।।
सद्रोहिताप्रपाताख्ये कुण्डेरज्जुरिवावटे ॥३७५॥ युग्मं ॥
वह नदी एक हजार छ: सौ पांच योजन और पांच कला समान पर्वत पर बहकर, फिर कुएं में रस्सा गिरता है वैसे विशाल धारा रूप में रोहिता प्रपात नाम के कुंड में गिरती है । (३७४-३७५)
अत्रायमाम्नायः व्यासं हृदस्य संशोध्य गिरि व्यासेऽर्द्धिते च यत् । तावन्नदीनां क्रमणं गिरौ स्याद्दक्षिणोत्तरम ॥३७६॥
यहां परम्परा इस प्रकार से है :- पर्वत के व्यास में से सरोवर का व्यास बाद करते जो संख्या आती है उसका आधा करना, उसका जो परिणाम आता है वह नदी.का पर्वत पर, दक्षिणोत्तर क्रमशः समझना । (३७६)
दाक्षिणात्यतोरणेन तस्मान्निर्गत्य कुण्डतः । प्राच्यं हेमवतस्या द्वेधा विदधती किल ॥३७७॥ क्रोशद्वयेनासंप्राप्ता शब्दापाति महीधरम् । आलीव रोहितांशाया हृष्टागात्पूर्व संमुखी ॥३७८॥ अष्टाविंशत्या सहस्त्रैः नदीभिः परिवारिता । अधो विभिद्य जगती पूर्वाब्धि याति रोहिता ॥३७६॥ विशेषांक
पर्वत से कंड में गिरने के बाद वहां से दक्षिण तरफ के तोरण में होकर बाहर निकल कर पूर्वार्द्ध हेमवंत क्षेत्र को दो विभाग में बांट कर शब्दापाती पर्वत से दो कोस दूर हट कर वह रोहिता नदी मानो रोहितांशा नदी की सखी हो इस तरह हर्ष पूर्वक इसके सन्मुख आई, वहां उसे अट्ठाईस हजार नदियां आ मिली । उन्हें साथ में लेकर जगती (किले) के नीचे से भेदन कर पूर्व समुद्र को मिलती है। (३७७-३७६)