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________________ (२४१) वहां के मनुष्य एक कोस से ऊंचे है उनका आयुष्य उत्कृष्ट से एक पल्योपम है और जघन्य से पल्योपम से कुछ कम है । (३४७) चतुः षष्टिः पृष्ट करंडकाः सुन्दरभूघनाः । दिनान्यशीतिमेकोमा विहितापत्यपालनाः ॥३४८॥ इनकी देहाकृति सौन्दर्यवान होती है, इनकी चौंसठ पसली होती है और वे अपनी सन्तान को उनासी दिन तक ही पालन पोषण कर बड़े करते है । (३४८) सत्यपि स्वर्ण रत्नादौ ममत्वावेश वर्जिताः । सतामपि गजादीनाम ग्रहात् पाद चारिणः ॥३४६।। वहां सुवर्ण, रत्न आदि सब कुछ होने पर भी किसी के प्रति युगलियो को ममत्वभाव नहीं होता, तथा हस्ती घोड़े आदि सवारी के योग्य प्राणि होने पर भी उसका उपयोग नहीं करते वे हमेशा पाद चारी-पैदल चलते हैं । (३४६) विचक्षणाश्चारूवेषा; प्रेष्य प्रेषकतोज्झिताः ॥ चतुर्थान्ते चामलक फल प्रमित भोजिनः ॥३५०॥ वे विचक्षण होते है, सुन्दर वेष धारण करते हैं, और एक-एक दिन के अन्तर (बाद) में केवल एक आंवल के जितना आहार लेते हैं, वहां सेव्य-सेवक (स्वामी और सेवक) भाव जैसा कुछ भी नहीं होता है । (३५०) आद्य संहननाः पृथ्वी स्व? पुष्पफलाशिनः । प्रकृत्या प्रतनुद्वेषरागाः स्वर्लोक यायिनः ॥३५१॥ कुलकम् ॥ इनका प्रथम वज्ररूप नाराच संघयण होता है, वे पृथ्वी और कल्पवृक्ष के पुष्प फलों का आहार करते हैं और स्वभाव से अल्प रागद्वेष वाले होने से स्वर्गगामी ही होते है । (३५१) बद्ध स्नेह इवैतस्मिन् कालः सुषमदुःषमा । सार्वदीनस्तत्स्वरूपं काल लोके प्रवक्ष्यते ॥३५२॥ इति हैमवंत क्षेत्रम् ॥ प्रेम पूर्वक बंधन हुआ हो ऐसा सुषमा दुःषमा काल सदा अवस्थित (विद्यमान) रहता है । उसका स्वरूप आगे काल लोक के अधिकार में कहा जायेगा (३५२) इस तरह से हैमवंत क्षेत्र का स्वरूप कहा है।
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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