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इनका शरीर चौंसठ पसलियों से शोभित सुन्दर आकृति वाला होता है। ये एक एक दिन के अन्तर में कल्पवृक्ष के फलों का आहार करते हैं, उनको राग द्वेष शोक अथवा रोग आदि कुछ नहीं होता, जब छह महीने का आयु शेष रह जाता है तब वे पुत्र-पुत्री रूप युगल को जन्म देते हैं और उनका उनासी दिन तक लालन पालन कर समाधि पूर्वक मृत्यु प्राप्त कर देवलोक में उत्पन्न होते है । (३२२-३२४)
एवं वक्ष्यमाण हैमवतादियुग्मिनोऽपि हि । षण्मास शेषे सुवतेऽपत्यान्यायुषि नान्यथा ॥३२५॥
अब जिसका वर्णन किया जायेगा वह हैमवंत आदि क्षेत्र के युगलिक मनुष्य की छ: मास आयुष्यं रहता है, तब ऐसे युगलियों को जन्म देते हैं । (३२५)
___ "तथोक्तंप्रथमारक स्वरूपाधिकारेंजम्बूद्वीपेप्रज्ञप्तौअन्तरद्वीपाधिकारे, जीवाभिगमे च । छम्मासाव सेसाउया जुगलं पसवं तीति ॥" इति हिमवान् पर्वतः॥
"जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में प्रथम आरे के स्वरूप के अधिकार में इसी तरह कहा है, और जीवाभिगम सूत्र में अन्तर द्वीप के अधिकार में इसी प्रकार की ही बात कही है।" इस तरह हिमवान पर्वत का स्वरूप कहा है।
क्षेत्रं विभाति हिमवन्महाहिमवदन्तरे । अविभक्तं द्रव्यमिव द्वाभ्यां ताभ्या सुरक्षितम् ॥३२६॥ द्वाभ्यां पूर्वा परान्ताभ्यां संस्पृष्ट लवणार्णवम् । हारि हैमवताभिमख्यं वर्यपर्यंकसंस्थितम् ॥३२७॥ युग्मं ॥
हिमवंत और महाहिमवंत पर्वत के बीच विभाग नहीं होते, द्रव्य के समान दोनों पर्वतों से सुरक्षित पर्यंकासन में रहा श्रेष्ठ और सुन्दर हैमवंत नाम का क्षेत्र है। उसके पूर्व और पश्चिम के अन्तिम विभाग में लवण समुद्र को स्पर्श करता है । (३२६-३२७)
ददाति हेम युग्मिभ्यः आसनादितया ततः । यद्वा देवो हैमवतः स्वामी हैमवंत ततः ॥३२८॥
युगलिक मनुष्यों को आसनादि के लिए हेम - (सुवर्ण) देने का होने के कारण अथवा इनके हैमवंत नाम के देव अधिपति होने के कारण इस क्षेत्र का नाम 'हैमवंत' कहलाता है । (३२८)