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(२३५) सौ योजन अन्तर है और इसका घेराव दो हजार आठ सौ पैंतालीस योजन का है। जम्बू द्वीप की ओर से साढे छ: योजन के ऊपर साठ, पचानवे ६०/६५ अंश सद्दश जल ऊपर है और समुद्र की दिशा में आधा योजन जल ऊपर है । (३०८ से ३१०) (यहां श्लोक के अनुसार ४५२८ योजन अर्थ निकलता है परन्तु - गिनती के - अनुसार २८४५ होता है।) एवं च - एकोरूको हयकर्णः तथा दर्शमुखोऽपि च ।
अश्व मुखाश्व कोल्का मुखाश्च धनदन्तकः ॥३११॥ द्वीपाः सप्त यथैशान्यां दाढायां कथिता इमे ।। तावदायाम विष्कम्भाः तावत्परस्परान्तराः ॥३१२॥ जगत्यास्तावता दूरे तावदेवोच्छ्रिता जलात् । तथैव सप्त सप्त स्युराग्नेय्यादिविदिक्त्रये ॥३१३॥ विशेषांक।।
इसी तरह से १- एकोरूक, २- हयकर्ण, ३- आदर्श मुख, ४- अश्वमुख, ५- अश्वकर्ण, ६- उल्कामुख और ७- धनदंतक नामक सात द्वीपों के समान इशान की ओर दाढा में आए है। इसी तरह उतनी ही लम्बाई-चौड़ाई वाले उतने ही परस्पर अन्तर वाले है, उतने ही जगती से दूरस्थ, उतने ही जल से ऊंचाई वाले सात-सात द्वीप अग्नि कोण आदि तीन विदिशाओं की दाढो में आए हुए हैं । (३११-३१३)
एषां क्रमे स्वरूपे च न विशेषो मनागपि । विशेषः केवलं नाम्नां तान्येतानि यथाक्रमम् ॥३१४॥ आभासिकोगजकर्णो मेंढहस्तिमुखौ तथा । .. हरिकों मेघमुखो लष्टदन्तोऽग्निकोणको ॥३१५॥
इन सब का क्रम अथवा स्वरूप में कुछ भी फर्क नहीं है अन्तर केवल नाम का है और उनका नाम अनुक्रम से इस प्रकार है :- १- आभासिक, २- राजकर्ण, ३- मेंढमुख, ४- हस्तिमुख, ५- हरिकर्ण, ६- मेघमुख और ७लष्टदंत । इस नाम के सात द्वीप अग्नि कोने की ओर दाढा में आते है । (३१४३१५)
वैषाणिकश्च गोकर्ण स्तथायः सिंह तो मुखौ ।
अकर्णो विधुन्मुखश्च नैर्ऋत्यां गूढदन्तकः ॥३१६॥ . १- वर्षाणक, २- गोकर्ण, ३- अयोमुख, ४- सिंह मुख ५- अकर्ण