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________________ (२२६) उदीच्यामपि षटत्रिंशत् तथैव तटयोस्तयोः । कल्पान्तेऽत्रादिबीजानां स्थानानीति द्वि सप्ततिः ॥२६५॥ इस तरह सब मिलाकर बहत्तर बिल होते हैं, ये बहत्तर बिल कल्पांत समय में (पांचवे आरे के समय में ) अन्न आदि बीजों का बहेत्तर का स्थान है । (२६५) पंच स्वेवं भरतेषु पंचस्वैरवतेषु च । विलानि भाव नीयानि द्वि सप्ततिः द्वि सप्ततिः ॥२६६॥ इसी तरह से पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्रों में भी बहत्तर-बहत्तर बिल समझ लेना चाहिए । (२६६) औत्तराहतोरणेन तस्मात् पद्महृदादथ । निर्गता रोहितांशाख्योत्तराशाभिमुखी नदी ॥२६७॥ द्वे योजन शते युक्त षट् सप्तत्या कलाश्च षट् । पर्वतोपर्यतिक्रम्य वज्र जिव्हिकया नगात् ॥२६८॥ रोहितांश प्रपाताख्ये कुण्डे निपत्य हारवत् । उदीच्यतोरणेनास्मान्निर्गतोत्तरसंमुखी ॥२६६॥ मार्ग चतुर्दशनदी सहस्र परिवारिता । तंत्रत्य वृत्त वैताढयं मुक्त्वा क्रोश द्वयान्तरे ॥२७०॥ स्थानात्ततः परावृत्य प्रस्थिता पश्चिमा मुखी । पुनश्चतुर्दशनदीसहस्रसेविताभितः ॥२७१॥ अष्टाविंशत्या सहस्त्रैः नदीभिरेवमन्विता । .. द्वेधा विदधती हैमवतस्याद्धं च पश्चिमम् ॥२७२॥ अधो विभिद्य जगतीं याति पश्चिम वारिधिम् । गंगा सिन्थ्वोः सपत्नीव द्विगुणधिः पति प्रियाः ॥२७३॥ (सप्तमिः कुलकम्) पद्म सरोवार के उत्तर ओर के तोरण में से रोहितांशा नामक नदी निकलती है, जो उत्तर दिशा की ओर बहती है। वह नदी पर्वत पर दौ सौ छिहत्तर योजन और छ: कला परिभ्रमण करती हुई वहां से वज्र जिव्हा के आकार में विशाल धारा रूपा रोहितांशा प्रपात नामक कुंड में गिरते हुए मुक्ताफल के हार समान दिखती है । वहां से पूर्वोक्त उत्तर दिशा के तोरण में होकर उत्तर की ओर बहती है, रास्ते
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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