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(२२८) जो तीर्थ का नाम है, वही उस-उस तीर्थ के अधिपतियों का नाम है, प्रत्येक की राजधानी उस तीर्थ से बारह योजन दूर समुद्र में होती है । (२५८)
कृताष्टमतपाश्चकी रथनाभिस्पृगम्भसि । स्थित्वा बाधौं स्वनामांकशरं मुक्त्वा जयत्यमून् ॥२५६॥
दिग् विजय के लिए निकले चक्रवर्ती अट्ठम (तीन उपवास) का तप करके रथ को नाभि तक पानी में ले आता है और उस समुद्र जल मे रहकर अपने नाम से आंकित बाण को फैककर उस तीर्थाधिपति देव को जीतता है । (२५६)
प्रतीच्यतोरणेनाथ हृदात्तस्माद्विनिर्गता । गत्वा प्रतीच्यामावृत्ता सिन्ध्वावर्तनकूटतः ॥२६०॥ दक्षिणाभिमुखी शैलात् कुण्डे निपत्य निर्गता । प्रत्यभागे तमिस्राया भित्वा वैताढय भूधरम् ॥२६१॥ . ततः पश्चिम दिग्भागे विभिद्य, जगती मधः । विशत्यम्भेनिधिं सिन्धुगंगास्वसेव युग्मजा ॥२६२॥ त्रिमि वि० । .
गंगा नदी के साथ जन्म हुई बहन के समान सिन्धु नदी है, वह सरोवर के पश्चिम की ओर से तोरण में से निकलती है । निकल कर ५०० योजन दक्षिण दिशा के सिन्धु प्रपात कुंड में गिरती है, वहां से बहती तमिस्रा गुफा के पूर्व ओर के भाग में वैताढय पर्वत को भेदन कर वहां से पश्चिम में बहती जगती के नीचे से भेदन कर समुद्र को मिलती है । (२६०-२६२)
गंगावत् सर्वमस्याः स्यादांरम्यहृदनिर्गमात् । स्वरूपमब्धि संगान्तं सिन्धुनाम विशेषितम् ॥२६३॥
सरोवर से निकल कर समुद्र में मिलने तक सिन्धु नदी का सारा स्वरूप गंगा नदी के समान जानना केवल नाम सिन्धु इतना ही फेर है । (२६३)
वैताढय तो दक्षिणस्यां सरितोः सिन्धुगंगयोः । बिलानि स्युः नव नव पूर्व पश्चिम कूलयोः ॥२६४॥
वैताढय पर्वत से दक्षिण दिशा में सिन्धु और गंगा नदी के पूर्व और पश्चिम तट पर नौ-नौ (६+६+६+६=३६) छत्तीस बिल (गुफाए) है । (२६४) इसी तरह वैताढय की उत्तर दिशा में भी इन नदियों के दोनों तटों पर छत्तीस बिल है ।