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(२२१)
प्रथम वलय (मंडल) में एक सौ आठ कमल हैं, वे मूल कमल से आधे मान-माप के हैं । उसमें श्री देवी के आभूषण भरे हैं । (२२७)
वायूत्तरेशानदिक्षु सामानिक सुधाभुजाम् । चतुः सहस्री पद्मानां तावतां परिकीर्तिता ॥२२८॥
दूसरे वलय में वायव्य, उत्तर और ईशान दिशाओं में चार हजार सामानिक देवों के चार हजार कमल हैं । (२२८)
महत्तराणां देवीनां प्राक् चत्वार्यम्बुजानि च ।
सहस्राण्यष्ट चाग्नेय्यामभ्यन्तरसभाजुषाम् ॥२२६॥
पूर्व दिशा में महत्तरी देवियों के चार कमल हैं, अग्नि कोने में अभ्यन्तर सभा में बैठने वाले देवों के आठ हजार कमल है । (२२६)
सहस्राणिदशाब्जानामपाच्यां मध्यपर्षदाम । द्वादशब्जसहस्राणि नैर्ऋत्यां बाह्यपर्षदाम् ॥२३०॥ सेनापतीनां सप्तानां प्रत्यक् सप्ताम्बुजानि च । द्वितीयोऽयं परिक्षेपो मूलपद्मस्य वर्णितः ॥२३१॥
दक्षिण दिशा के अन्दर मध्य सभा में बैठने वाले देवों के दस हजार कमल है, और नैऋत्य कोने में बाह्य पर्षदा के देवों के बारह हजार कमल हैं, और पश्चिम दिशा में सात सेनापतियों के सात कमल है । इस तरह से मूल कमल के दूसरे वलय का स्वरूप का वर्णन हुआ । (२३०-२३१)
आत्मरक्षि सहस्राणां षोडशानां चतुर्दिशम् ।
चतुःसहसस्त्री प्रत्येकं परिवेषे तृतीयके ॥२३२॥
तीसरे वलय में प्रत्येक दिशा में चार-चार हजार, इस चार दिशा के अन्दर कुल सोलह हजार कमल हैं और वे सोलह हजार आत्म रक्षक देवो के हैं । (२३२)
त्रयं परे परिक्षेपा अभियोगिपयोरूहाम् । द्वात्रिंशत् प्रथमे लक्षां अभ्यन्तराभियोगिनाम् ॥२३३॥ चत्वारिंशत् पद्मालक्षा मध्ये मध्याभियोगिनाम् । लक्षाणामष्टचत्वारिंशत् वाह्ये वाह्यसेविनाम् ॥२३४॥ युग्मं ।
चौथे, पांचवे और छठे इन तीन वलयों में अभियोगिक देवों के कमल हैं। वह इस तरह चौथे वलय में अभ्यन्तर पर्षदा के अभियोगी देवों के बत्तीस लाख