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(२१७) उपर्येतस्या अथैको देवच्छन्दक आहितः । उच्चस्त्वेन साधिकानि योजनान्यष्ट स श्रुतः ॥२०५॥ विष्कम्भायामतोऽप्येष योजनान्यष्ट तत्र च ।
अष्टोत्तर शतं सिद्धप्रतिमास्तासु पूर्ववत् ॥२०६॥
उस मणि पीठिका के ऊपर एक देवच्छंदक है, जो आठ योजन से कुछ विशेष ऊंचा है और आठ योजन लम्बा-चौड़ा है । उसमें पूर्व के समान एक सौ आठ सद्धि प्रतिमाएं हैं । (२०५-२०६)
दशानां शेषकूटानामुपर्येकै क आलयः । द्वाषष्टि योजनान्यर्द्धाधिकान्यायत विस्तृतः ॥२०७॥ एकत्रिंशद्योजननानि सक्रोशानि समुन्नतः । तत्तत्कूट समाह्वानस्वामिना समधिष्टितः ॥२०८॥ युग्मं ।
शेष दस शिखर पर भी एक-एक मंदिर है, वह प्रत्येक साढे बासठ योजन लम्बा चौड़ा तथा सवा इकतीस योजन उंचा है, प्रत्येक शिखर के नाम, अनुसार नाम वाले स्वामी देव से अधिष्ठित है । (२०७-२०८)
कूटे द्वितीय तृतीये दसमे रूद्रसंमिते । . चतुर्वेषु सुरा ईशाः देव्यः शेषेषु षटसु च ॥२०६॥
. दूसरे, तीसरे, दसवें और ग्यारहवें, इन चार शिखरों पर देवों का और शेष छः शिखरों पर देवियों का अधिपत्य होता है । (२०६)
तथाहि.-इलादेवी सुरादेवी द्वे इमे दिक्कुमारिके । .
. तिस्त्रश्चनद्यधिष्टात्र्यः श्रीश्चेति प्रथिताइमाः॥२१०॥ ये छ: देवियां इस तरह हैं- प्रथम दो इला देवी और सुरा देवी नामक दिक्कुमारियां हैं । दूसरी तीन नदियों की अधिष्टात्री देवियां हैं और छठी लक्ष्मी देवी नाम की है । (२१०)
देवा देव्यश्च सर्वेऽमी एक पल्योपमायुषः । महर्द्धिका विजयवत्तथैषां राजधान्यपि ॥२११॥
इन सब देव देवियों का आयुष्य एक पल्योपम का है, वे सब विजयदेव के समान समृद्धिशाली हैं, और इनकी राजधानियां भी विजय देव सद्दश समझ लेना । (२११)