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(२१२) बलभ्यां संगते संघे देवर्द्धिगणिरग्रणीः । मथुरायां संगते च स्कन्दिलार्योऽग्रणीरभूत् ॥१७२॥
उसके बाद जब सुकाल हुआ, तब सूत्र और इसका अर्थ कम होने लगा उस समय उसे अखण्ड रखने के लिये वल्लभीपुर और मथुरा नगरी में संघ एकत्रित हुआ था। वल्लभी पुर में एकत्रित हुए संघ में मुख्य अग्रसर देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण थे और मथुरा में एकत्रित हुए संघ में मुख्य अग्रेसर श्री स्कंदिल आचार्य थे। (१७१-१७२)
ततश्चवाचनाभेदस्तत्र जातः क्वचित् क्वचित् । ... विस्मृत स्मरणे भेदो जातु स्यादुभयोरपि ॥१७३॥
इस कारण से सूत्र पाठ में किसी-किसी जगह फेर फार हो गया होगा। क्योंकि विस्मृत हुआ, पुनः पुनः याद करने, दोनो में तफावत- फर्क होने का संभव हो सकता है । (१७३)
तत्तैस्ततोऽर्वाचीनैश्च गीताथैः पाप भीस्तभिः। मतद्वयं तुल्यतया कक्षीकृतमनिर्णयात् ।।१७४॥
इसलिए उन्होंने तथा उसके बाद पाप भीरू, अर्वाचीन गीतार्थ महापुरुषों ने, कुछ भी निर्णय न होने से दोनों मत सामान्य रूप में स्वीकार किये हैं । (१७४)
सत्यप्येवं साम्प्रतीना विसंवाद श्रुतस्थितम् । निर्णेतुमुत्सहन्ते ये ते ज्ञेया मातृशासिताः ॥१७॥
इस तरह होने पर भी, अभी के जो लोग शास्त्र का वाद.विवाद आदि दूर करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वे अपनी माता को सीख-उपदेश देने के समान समझना चाहिए । (१७५)
"एवमेवोक्तं श्री मलयगिरिभिः ज्योतिष्करंड वृत्तौ ।" .
अर्थात् पूज्यपाद आचार्य श्री मलय गिरि ने भी अपने 'ज्योतिष्करंकड' ग्रन्थ की टीका में दोनों बाते स्वीकार की हैं ।
देशोनक्रोशतुंगोऽर्द्धकोशविस्तृत एव च । । क्रोशायाम् उपर्यस्य प्रासादोऽतिमनोरमः ॥१७६॥ .
इस पर्वत पर एक सुन्दर प्रासाद है वह लगभग एक कोस उंचा, आधा कोस चौड़ा और एक कोस लम्बा है (१७६)