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________________ (२११) मूले सो योजनान्यष्टौ मध्य षट योजनानि । चतुष्टयं योजनानां उपर्याय तविस्तृत ॥१६५॥ इसकी लम्बाई-चौड़ाई मूल में आठ योजन, मध्य में छः योजन और ऊपर चार योजन की है । (१६५) पंच विंशतिरेवाष्टादशैव द्वादशापि च । साधिकानि परिक्षेपो मूले मध्ये च मूर्ति च ॥१६६॥ इसका घेराव मूल में पच्चीस योजन, मध्य में अठारह हजार और ऊपर बारह योजन से कुछ विशेष है । (१६६) . द्वादशाष्ट च चत्वारि मूले मध्ये शिरस्यपि । योजनानि क्रमादस्य व्यासायामो मतानतरे ॥१६७॥ सप्तत्रिंशत् क्रमात पंच विशतिः द्वादशापि च । साधिकानि परिक्षेपो मूले मध्ये तथोपरि ॥१६८॥ एक ऐसा भी मत है कि इसकी लम्बाई-चौड़ाई मूल में, मध्य में और ऊपर अनुक्रम से बारह, आठ और चार योजन का है इसका घेराव अनुक्रम से साढ़े तीस योजन, पच्चीस योजन और बारह योजन से कुछ अधिक है । (१६७-१६८) ___इदं च - मतद्वयमपि जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्रे ॥ . मतान्तरं ननुकथं श्रुतं सर्वज्ञमूलके । तुल्यकैवल्यभाजांयदेकमेवाहतां मतम्॥१६६॥ • ये दोनों मत जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के हैं। यहां प्रश्न करते हैं कि श्रुत तो सर्वज्ञ भाषित है, तो फिर इसमें मतान्तर क्यों है ? सर्व अर्हत् परमात्मा का केवलज्ञानं एक समान होता है, अतः इनका मत भी एक ही होना चाहिए । (१६६) अत्रोच्यते - दुर्भिक्षे स्कन्दिलाचार्यदेवर्द्धिगणिवारके। - गणनाभावतः साधुसाध्वीनां बिस्मृतं श्रुतम् ॥१७॥ इसका उत्तर देते हैं कि - श्री स्कंदिल आचार्य और देवर्धिगण क्षमाश्रमण के समय में दुकाल के कारण साधु साध्वी के द्वारा स्वाध्याय-पठन पाठन न होने से श्रुतज्ञान विस्मृत हो गया था । (१७०) ततः सुभिक्षे संजाते संघस्य मेलकोऽभवत् । वलभ्यां मथुरायां च सूत्रार्थ घटनाकृते ॥१७१॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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