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________________ (२०६) यहा भी बार्ध नामक रत्न से बने सुन्दर पुल की सहायता से प्रथम निमग्न जलानदी पार करते हैं, और फिर शीघ्र ऊन्मग्न नदी पार करते है । (१५२) इमे मानादिभिः प्राग्वत् प्रत्यग्भिति विनिर्गते । प्राच्यभित्तिं किन्तु भित्वा प्राप्ते गंगामहा नदीम् ॥१५३॥ ये दोनों नदियों प्रमाण में पूर्वोक्त नदियों के समान है, परन्तु वे पश्चिम की दीवार में निकल कर पूर्व की दीवार को भेदन कर गंगा महा नदी में जाकर मिलती है । (१५३) द्वारेण दाक्षिणात्येन स्वय मुद्घटितेन च । निर्गत्य कृत कृत्यः सन् चक्री निज पुरं विशेत् ॥१५४॥ उसके बाद अपने आप.खुले हुए दक्षिण दिशा के द्वार से निकल कर कृतकृत्य बना चक्रवर्ती अपनी राजधानी में वापस आता है । (१५४) स्याद्यावच्चक्रिणो राज्यं तावत्तिष्टन्ति सन्ततम् । मंडलानि च पद्ये च गुहा मार्गे गतागते ॥१५५॥ जब तक चक्रवर्ती का राज्य होता है वहां तक गुफा के मार्ग में जाने आने के लिए वे प्रकाश मंडल और सेतु-पुल कायम रहते हैं । (१५५) अयं प्रवचन सारोद्वार वृत्यभि प्रायः । त्रिपष्टी याजित चरित्रे तु ॥ यह बात हमने प्रवचन सारोद्वार के अभिप्राय अनुसार कही है । त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र के अजितनाथ के चरित्र में तो इस तरह लिखा है कि - उद्घाटितं गुहा द्वारं गुहान्तर्मण्डलानि च । तावत्तान्यपि तिष्टन्ति यावज्जीवति चक्रभृत् ॥१५६॥ जहां तक चक्रवर्ती जीवित है वहां तक गुफा के द्वार खुले रहते है और गुफा के अन्दर आलेखन किए मण्डल भी कायम रहते हैं । (१५६) इतिउक्तम् - द्वारात् खण्ड प्रपाताया याम्याद्याम्यदिशि ध्रुवम् । गंगा याः पश्चिमे कुले वसन्ति निधयो नव ॥१५७॥ इति दक्षिणार्ध भरतम् ॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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