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________________ (२०८) इस नदी का स्वभाव ऐसा है कि - तृण, काष्ठ अथवा मनुष्य आदि जो कोई भी इसमें गिरता है उन सब को अन्दर डुबा देता है । (१४५) । ततश्चोत्तरतः सप्तदशभिः योजनैः परः । चतुर्योजन विष्कम्भायाम उत्तरतोड्डकः ॥१४६॥ वहां से उत्तर की ओर सत्रह योजन दूर पर चार योजन विस्तार वाला उत्तर तोडक आता है । (१४६) ततश्च - उभाभ्यां द्वार भागाभ्यामित्येवं सर्व संख्यया । योजनैरेकविंशत्या नद्यौ स्यातां यथोदिते ॥१४७॥ अतः इस तरह दोनों द्वार से सर्व संख्या इक्कीस योजन के बाद पूर्वोक्त दोनो नदियां आयी है । (१४७) अथ वार्द्धकिरलेन सद्यः सज्जित पद्यया । नद्याबुभे समुत्रीर्य यावत् गच्छति .चक्रभृत् ॥१४८॥ तावद्विना प्रयासेन कपाटावुत्तराश्रितौ । उद्घटेते स्वयमेव कृत क्रौंचाखौ रयात् ॥१४६॥ युग्म। यहां वार्द्ध की नामक रत्न द्वारा शीघ्र ही पुल खड़ा कर चक्रवर्ती इन नदियों को पार करता है उसी समय बिना प्रयास से उत्तर दिशा के दोनों किवाड़ कौंच पक्षी सद्दश शब्द होते ही अपने आप खुल जाते हैं । (१४८-१४६) निर्गत्य तेन द्वारेण विजित्योत्तर भारतम् । दर्याः खण्ड प्रपातायाः चक्री समीपमापतेत् ॥५०॥ उस द्वार से निकलने के बाद उत्तर भारत को जीत कर चक्रवर्ती खण्ड प्रपाता गुफा के पास आता है । (१५०) उत्तरद्वारमुद् घाटय सेनानी कृत यत्नतः । मण्डलान्यालिखन्प्राग्वत् चक्री विशतितांगुहाम्॥१५१॥ वहां सेनापति के द्वारा प्रयत्न करने से उत्तर की और का द्वार खुल जाता है इससे उस गुफामें चक्रवर्ती पूर्व के समान प्रवेश करके मंडल आलेखन-चित्रण करते आगे बढ़ता है । (१५१) पूर्व निमग्न सलिला समुत्तरेत्ततः पराम् । तूर्ण बार्द्धकिरलेन कृतया हृद्यपद्यया ॥१५२॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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