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(२०६) ततो द्वे औत्तराह प्राक् तोड्डकेऽन्त्यं च मण्डलम् । उदीच्यप्राक्कपाटेयं पश्चिमायामपि क्रमः ॥१३८॥
फिर उत्तर की ओर के प्रथम तोड्डुक पर दो और उत्तर तरफ के प्रथम किवाड़ पर अन्तिम मंडल होता है । फिर पश्चिम दिशा में भी इसी क्रम अनुसार सारा होता है । (१३८)
एवमेकोन पंचाशत् पूर्वभित्तौ भवन्ति वै । .... तावन्य परभित्तौ तत्तुल्यानि संमुखानि च ॥१३६॥
इसी तरह पूर्व की ओर दीवार पर उनचास मंडल होते. हैं, और इसके सम्मुख पश्चिम की ओर से दीवार पर भी उतने ही होते हैं.। (१३६)
अयं च मलय गिरिकृत क्षेत्र विचार बृहद् वृत्याद्यभिप्रायः॥ .
"आवश्यक बृहद् वृत्ति टीप्पनक प्रवचन सारों द्वार बृहद् वृत्याद्य भि प्रायस्तु अयम् । गुहायां प्रविशन् भरतः पाश्चात्यपान्थजन प्रकाश करणाय दक्षिण द्वारे पूर्व दिक्क पाटे प्रथमं योजनं मुक्त्वा प्रथमं मण्डलमा लिखिति । ततो गोमूत्रि का न्यायेन उत्तरतः पश्चिम दिक्कपाट तोड्डके तृतीय योजना दौ द्वितीय मण्डलमा लिखति । ततः तेनैव न्यायेन पूर्व दिक्कपाट तोडके चतुर्थ योजनादौ तृतीयम् । ततः पश्चिम दिग्भितौ.पंचम योजनादौ चतुर्थकम् । ततः पूर्वदिभित्तौ षष्ठयो जनादौ पंचमम् । यावदष्ट चत्वारिंशत्तम मुत्तर द्वार सत्कपश्चिम दिक्क पाटे प्रथम योजना दौ एकोनपंचाशत्तमं चोत्तर दिगद्वार सत्क पूर्व दिक्क पाटे द्वितीययो जनादौ आलिखति ॥एवं एकस्या मितौ पंचा विंशतिरपरस्यां च चतुविंशतिः इति समग्रेण एकोन पंचाशत् मण्डलानि भवन्ति इति ॥"
यह अभिप्राय मलय गिरि रचित क्षेत्र विचार की वृहत् टीक के आधार पर कहा गया है । आवश्यक वृहद् वृत्ति की टिप्पणी व प्रवचन सारोद्वार वृत्ति का अभिप्राय यह है, कि - गुफा में प्रवेश करते चक्रवर्ती के पीछे आने वाले को प्रकाश हो, इसके लिए प्रथम योजन पूरा हो । वहां दक्षिण दिशा के द्वार में पूर्व दिशा के किवाड़ में प्रथम मंडलकार मानचित्र करता है, फिर गोमुत्रिका न्याय से उत्तर दिशा के पश्चिम दिशा वाले किवाड़ के टोडाल पर तीसरे योजन में दूसरा मंडल आलेख-मानचित्र करते हैं, फिर उसी न्याय से पूर्व दिशा के तोडुक पर चौथा योजन में तीसरा मंडल का आलेखन है, फिर पश्चिम दिशा की दीवार में पांचवे योजन में