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( २०५ )
हस्ति रत्नं समारुह्य कुम्भस्थलस्फूरन्मणिः । चक्री तंदुौतिताध्वा तमिस्त्रां प्रविशेत् गुहाम् ॥१३२॥
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हस्ति रत्न पर आरूढ होकर चक्रवर्ती उस गुफा में प्रवेश करता है । तब उस हस्ति के कुंभस्थल पर एक अध्यन्त तेजस्वी मणि रखकर उस अन्धकारी गुफा को प्रकाशित करते हैं । (१३२)
तत्र प्रविश्य पाश्चान्य सैन्य प्रकाश हेतवे । रत्ननेन काकिणी नाम्ना खटीपिंडावलेखिना ॥१३३॥ उर्ध्वाधो योजनान्यष्टौ तिर्यक् द्वादश योजनीम् । प्रकाशयत् योजनं चैकैकं दक्षिण वामयोः ॥१३४॥ युग्मं ।
इस तरह प्रवेश करके पीछे आते सैन्य को प्रकाश हो, इसके लिए मानो खड़ी के टुकड़े के समान काकिणी रत्न से गुफा में दोनो और दीवार पर मंडलाकार आलेख - मानचित्र करता जाता है । उसका उंचे से नीचे तक आठ योजन में, तिरछा बारह योजन में, और दाहिने और वायी एक-एक योजन में प्रकाश पड़ता है । (१३३-१३४)
आदिमं आदिमं योजनां मुक्त्वा प्रथमं मण्डलं लिखेत् । पंचचाप शतायामविष्कम्भं भानु सन्निभम् ॥१३५॥
पहला मंडल प्रथम एक योजन से पूरा होता है। वहां आलेख होता है जो मंडल पांच सौ धनुष्य लम्बा चौड़ा है, और वह मानो सूर्य के समान प्रकाशित होता है । (१३५)
ततोऽपि योजनं मुक्त्वा द्वितीयं मण्डलं लिखेत् ।
इत्येवमुत्तर द्वारेशेषन्त्ये योजनेऽन्तिमम् ॥ १३६ ॥
इसी ही तरह, वहां से दूसरा योजन पूरा हो । वहां दूसरे मंडल का आलेख होता है । इस तरह उत्तर की ओर के द्वार में शेष अन्तिम योजन में आखिर मंडलकार का आलेख - मानचित्र होता है । (१३६)
एवं च - स्यादेकं दाक्षिणत्या प्राक्कपाटो परि मण्डलम् । द्वे तोडुके त्रिचत्वारिंशत्प्राग् भित्तावनुक्रमात् ॥१३७॥
इस तरह आलेख करते दक्षिण की ओर प्रथम किवाड़ पर एक मंडल, तोड्डक पर दो मंडल और फिर अनुक्रम से पूर्व की दीवार पर तैंतालीस मंडल होते हैं । (१३७)