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वैताढयस्य पर्वतस्य द्वे गुहे भवतः क्रमात् ।। खण्डप्रपाता प्राच्येशे तमिस्रा परतः पुनः ॥१२५॥
वैताढय पर्वत के पूर्व दिशा के अन्तिम विभाग में खंड प्रपाता नामक और पश्चिम के आखिर विभाग में तमिस्रा नामक दो गुफा है । (१२५)
उन्नते योजनान्यष्टौ तानि द्वादश विस्तृते । नित्यान्धकार गहने पंचाशद्योजनायते ॥१२६॥
दोनो गुफा में सदाकाल अन्धकार होता है और वे आठ योजन ऊँची बारह योजन चौडी और पचास योजन लम्बी है । (१२६).
दक्षिणस्यामुदीच्यां च द्वारमेकैकमेतयोः । . . . उच्छ्रितं योजनान्यष्टौ तानि चत्वारि विस्तृतम् ॥२७॥ ।
प्रत्येक गुफा के दक्षिण और उत्तर दिशाओं में दो द्वार है, प्रत्येक द्वार चार योजन ऊंचा और चार योजन चौड़ा है । (१२७)
नृतमालकृ तमालावेक पल्यायुषौ सुरौ । महर्द्धिको विजयवदेतयोः स्वामिनी क्रमात् ॥१२८॥
इस गुफा के नृतमाल और कृतमाल नामक देव अधिपति है, उनकी आयु स्थिति एक पल्योपम की है और समृद्धि विजयदेव के समान है । (१२८)
प्रतिद्वारं द्वौ कपाटौ वाजिको घटितौ सदा । अष्टावष्टौ योजनानि तुंगौ द्वे द्वे च विस्तृतौ ॥१२॥
प्रत्येक द्वार में दो वज्र से बने हुए दरवाजे (किवाड़) हैं, जो आठ योजन उंचे और दो योजन चौड़े हैं । (१२६)
यदेह चक्री भरतोत्तर भागंजिगीषति । सेनान्या रत्नदंडेनाहतौ तदासपर्वतः ॥१३०॥
जब यहां कोई चक्रवर्ती भरतक्षेत्र के उत्तर विभाग को जीतने निकलता है तब इसके सेनापति के दंड रत्न के प्रहार से किवाड़ उखड़ जाते हैं । (१३०)
उद्घाटितस्यैकैस्य पश्चाद् भागोऽस्ति तोड्डकः । चतुर्योजन विष्कम्भायामोऽवष्टम्भ एतयोः ॥१३१॥ .
ऐसे एक किवाड़ के पीछे एक-चार योजन लम्बा चौड़ा तोडक होता है जो किवाड को सहायक रूप होता है । (१३१)