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(२०१) यदुक्तं श्री समवायांगे।अवठियके समंसुरोमण हे इति ॥औप पाति के ऽ प्युक्तम् अवट्ठिय सुविभत्त चित्त मंसू ॥
इस सम्बन्ध श्री समवाय सूत्र में भी कहा है कि - "जिसके केश दाढी, मूछ, रोम और नाखून से युक्त प्रतिमा है।' उववाई सूत्र में भी इसी तरह कहा है कि 'श्री जिन प्रतिमा की दाढी शोभायमान दिखती है।' एवं च - तासां भाव जिनाधीश प्रतिरूपतया ततः ।
शाश्वतार्हत्प्रतिमानां श्मश्रुकूर्चादि युक्तिमत् ॥१०६॥ इस कारण से श्री जिनेश्वर भगवन्त की उन शाश्वत प्रतिमाओं के जिन रूपता के कारण दाढी मूछ मस्तक के केश आदि उचित है । (१०६)
भाष्ये त्वकेश शीर्षास्या या श्रामण्य दशोदिता । साऽवर्द्धिष्णुतयाल्पवात्तदभावविवक्षया ॥११०॥
भाष्य में केश रहित मस्तक युक्त मुखवाली श्रमणावस्था कही है, वह दाढी मूछ आदि बढ़ने का कारण न होने से अत्यन्त अल्प होने से उसका अभाव मान कर ऐसा कहा है । (११०) दीक्षा के समय में पंच मुष्टि लोच करने के बाद केश न हो, परन्तु बाद में उचित मात्रा में बढ़कर अवस्थित रहते है इस अपेक्षा से दोनो वस्तु घट सकती है।
ऐकैकस्याः प्रतिमायाः पृष्टतश्छत्रधारिणी । द्वे द्वे चामर धारिण्यौ पार्श्वतः पुरतः पुनः ॥१११॥ यक्षभूत कुंड धार प्रतिमानां द्वय द्वयम् । . विनयावनतं पादपतितं घटितांजलि ॥११२॥ युग्मं ॥
इन प्रत्येक प्रतिमाओं के पीछे एक छत्र धारिणी और आस-पास दो-दो चमर धारण करने वाली प्रतिमा रही है, और सन्मुख विनयपूर्वक नमन कर हाथ जोड़कर चरण स्पर्श करते दो-दो यक्ष भूत तथा कुन्ड धारियों की प्रतिमा रही है। (१११-११२)
यथा देवच्छन्दकेऽस्मिन् घंटा धूप कडुच्छकाः । तथा चन्दन कुम्भाद्याः प्रत्येकं शतमष्टयुक् ॥११३॥
वहा प्रत्येक जिन प्रतिमा के आगे एक घंटा और एक धुपदान तथा चंदन का कुंभ आदि भी रहा है । (११३)