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(२००) इनके चक्षु लाल रत्न की चिन्ह वाले हैं और कीकी आंख के बरोनी और भौंहें रिष्ट रत्नमय की है । (१०३)
ललाट पट्ट श्रवणकपोलं कनकोद्भवम् । केश भूमिस्तपनीयमयी केशाश्च रिष्ट जाः ॥१०४॥
इनका ललाट पट्ट, श्रवण और कपोल सुवर्णमय है । मस्तक भी सुवर्णमय है और केश रिष्ट रत्नमय है । (१०४)
वज्रजाः शीर्ष घटिकास्तथा कनक निर्मिताः । ग्रीवाबाहुपादजंघा गुल्फोरूतनुमयष्ट यः ॥१०॥
इनका शीर्ष घटिका वज्रमय है । ग्रीवा, हस्त, चरण, जंघा, टखना तथा शरीर का पूरा हिस्सा सारा सुवर्णमय है । (१०५)
नन्वेतानि भावजिनप्रतिरूपाणि तेषु च । उचितं श्मश्रुकूर्चादि श्रामण्यानुचित्तं कथम् ॥१०॥
यहां प्रश्न करते हैं कि ये भावजिन की प्रतिमा है । इनको श्रमणावस्था में अनुचित दाढी, मूंछ उचित किस तरह कह सकते हैं ? (१०६) .
तदुक्तं श्री तपागच्छ नायक श्री देवेन्द्र सूरि शिष्य श्री धर्म घोष सूरिभिः भाष्यवृत्तौ। भगवतोऽपगत केशशीर्ष मुख निरीक्षणेन श्रामण्यावस्था सुज्ञाता एवं इति ॥
क्योंकि तपगच्छाधिराज आचार्य श्री. देवेन्द्र सूरीश्वर जी के शिष्य श्री धर्मघोष सूरि जी ने भाष्य की वृत्ति में कहा है कि भगवान.का मुख केश रहित मस्तक देखने से उनकी श्रमणावस्था स्पष्ट दिखाई देती है। अत्रोच्यते - भावार्हतामपि श्मश्रुर्चादीनाम संभवः ।
नसर्वथा किन्तु तादृग्दिव्यातिशयसंभवात् ।।१०७॥ स्यादवस्थितता तेषां श्रमण्यग्रहणादनु । पुरुषत्वप्रतिपत्तिः सौन्दर्य चेत्थमेव हि ॥१०८॥
इसका उत्तर देते है - भाव जिनेश्वर की दाढी मूछ आदि का सर्वथा असंभव नहीं है, परन्तु उनके इस प्रकार की अवस्थिति के अंगीकार के बाद किसी ऐसे दिव्य अतिशय के कारण होता है, और इसके कारण से ही पुरुष की प्रतिपत्ति होती है, और इसमें सौन्दर्य भी लगता है । (१०७-१०८)