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________________ (१६६) अभियोगिश्रेणितश्च योजनानामतिकमे । पंचानामूर्ध्वमत्रास्योपरिभागो विराजते ॥७॥ यह पूर्वोक्त अभियोगी - सेवक देवों की श्रेणि से ऊँचे पांच योजन के बाद इसका ऊपर का भाग आता है । (७५) नाना रत्नालंकृतस्य दश योजनविस्तृतेः । मध्ये पद्मवेदिकास्य तस्याश्चोभयतो वने ॥७॥ यह भाग विविध प्रकार के रत्नों से मनोहर है, और दस योजन विस्तार वाला है । इसके मध्य में पद्मवेदिका है और इसके दोनो तरफ बगीचे आए है । (७६) तयोः क्रीडा पर्वतेषु कदल्यादि गृहेषु च । ... दीर्घकादिषु च स्वैरं क्रीडान्ति व्यनतरामराः ॥७७॥ इन दोनों बगीचे में क्रीडापर्वत है उसके ऊपर कदली गृह में तथा वाग आदि में व्यन्तरदेव अपनी इच्छानुसार क्रीडा करते हैं । (७७) पंच योजनतुंगस्य दश योजन विस्तृतेः । खण्डस्यास्य तृतीयस्य प्रतरं परिकीर्तितम् ॥८॥ एकं लक्षं द्वे सहस्रं चतुःशत्येकषष्टि युक् । कला दशाथ गणितं ब्रवीम्यस्मिन् धनात्यकम् ॥६॥ पंचलक्षा योजनानां सहस्रा द्वादशापरे । सप्तातिरेका त्रिशती कलाश्च द्वादशाधिकाः ॥८॥ वैताढय का तीसरा खण्ड, जो पांच योजन ऊँचा और दस योजन चौड़ा है। इसका प्रतर गणित एक लाख दो हजार, चार सौ इकसठ योजन और दस कला का कहा है । इसका घन गणित पांच लाख बारह हजार, तीन सौ सात योजन और बारह कला का कहा है । (७८-८०) त्रयाणमपि खण्डानां घनेष्वेकीकृतेषु च । वैताढयस्याखिलस्यापि जायते गणितं धनम् ॥८१॥ . तच्चैदम् - सप्तशीतिश्च लक्षाणि द्विनवतिः शतान्यपि । एकोनत्रिंशदाढयानि कलाश्चतुर्दशाधिकाः ॥२॥ इस तीन खंडों का गणित घनमाप एकत्रित करते सम्पूर्ण वैताढय का घन
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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