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(१६५) दस योजन ऊपर जाने के बाद दो श्रेणियां आती हैं, वह शक्रेन्द्र को सोम, यम, वरूण और वैश्रमण-कुबेर नामक लोकपाल के अभियोगी देवताओं की है । (६७-६८)
बहूनि भवनान्यत्र तेषां पल्योपमायुषाम् । बहिर्वृत्तानि रत्नानि चतुरस्राणिचान्तरे ॥६६॥
उन देवों का पल्योपम का आयुष्य होता है, और वहां उनके रत्नमय बहुत भवन होते हैं और वह बाहर से गोल और अन्दर से चतुष्कोण होता है । (६६)
वेदिकावनराजिन्योः श्रेण्योः व्यासोऽनयोः भवेत् । योजनानि दशैतावान् वैताढयस्यापि तत्र सः ॥७०॥
इन दोनों श्रेणियों में भी पद्मवेदिका और सुन्दर बाग बगीचे आए हुए हैं, इसका व्यास दस योजन का है और उस स्थान से वैताढय पर्वत का भी उतना ही व्यास है । (७०)
दश योजन तुंगस्य त्रिंशद्योजन विस्तृतेः । खण्ड स्यास्य द्वितीयस्य गणितं प्रतरात्मकम् ॥७१॥ तिस्रो लक्षाः सहस्राणि सप्त त्रीणि शतानि च । तथा चतुरशीतिश्च कलाः एकादशाधिकाः ॥७२॥
वैताढय पर्वत का दूसरा खंड दस योजन ऊँचा और तीस योजन चौड़ा है। इसका प्रतर' रूप गणित तीन लाख सात हजार, तीन सौ चौरासी योजन और ग्यारह कला है । (७१-७२)
अत्र च सर्वत्र यथोपयोगं योजनपदमनुक्तमपि अध्याहार्यम् ।
और यहां सर्व स्थान पर यथायोग्य योजन पद न कहा हो फिर भी अध्याहार अर्थात् तर्क-वितर्क कथन करना चाहिए।
तथा खण्डे द्वितीयस्मिन् निश्चितं सर्वतो धनम् । त्रिंशल्लक्षा योजनानां सहस्राणि त्रिसप्ततिः ॥७३॥ शतान्यष्टौ पंचचत्वारिंशदाढयानिचाधिकाः । कला: पंच दशत्युक्तं व्यक्तं युक्ति विशारदैः ॥७४॥
और दूसरे खण्ड का घन गणित तीस लाख तिहत्तर हजार आठ सौ पैंतालीस योजन और पंद्रह कला युक्ति विशारदों ने कहा है । (७३-७४)