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________________ (१६४) वसन्तः तेषु चोत्तंगरत्नप्रासादशालिषु । तृणायापि न मन्यन्ते स्वर्ग विद्याधरेश्वराः ॥६१॥ सब नगरियों में ऊँचे रत्न महलों में रहने वाले विद्याधरों की मान्यता में स्वर्ग तो तृण समान भी नहीं है । (६१) दस योजन तुंगस्य पंचाशद्विस्तृतेरपि । खंडस्याद्यस्य सकलं प्रतर स्यात् भुवस्तले ॥१२॥ पंच लक्षाः सहस्राणि द्वादशाथ शतत्रयम् । सप्ताढयं द्वादश कलाः खण्डेऽथ प्रथमे धनम् ॥१३॥ लक्षाणामेकपंचाशत् त्रयोविंशति रेव च । सहस्रा योजनानां षट् सप्ततिः षट् कलास्तथा ॥६४॥ त्रिभि विशेषकं ॥ दस योजन उन्नत तथा पचास योजन चौड़े इस प्रथम खंड के भूमितल का सारा प्रतर पांच लाख बारह हजार तीन सौ सात योजन और बारह कला का है, और इसका घन इकावन लाख, तेईस हजार छहत्तर योजन और छह कला होता है । (६२-६४) श्रेणीभ्यामथ चैताभ्यां योजनानामतिक्रमे । दशानां मेखलैकैका वर्तते पार्श्वयोः द्वयोः ॥६५॥ इन दोनों श्रेणियों से दस-दस योजन ऊपर दोनों तरफ एक-एक मेखला है। (६५) तत्र याम्योत्तराभिख्ये. श्रेण्यो गिरिसमायते । । वसन्त्यत्र शक्रसत्कलोकपालाभियोगिनः ॥६६॥ उत्तर श्रेणि और दक्षिण श्रेणि की लम्बाई पर्वत के समान है। और वहां इन्द्र के लोकपाल देवों के सेवक रहते हैं । (६६) तथाहुः क्षमाश्रमण पादा :विद्याहर सेढी ओ उड्ढं गं तूण जो अणे दसओ। दसजो अण पिहुलाए सेढी ओ सक्करायस्स ॥१७॥ सोमजम काइयाणं देवाणं वरूणकाइयाणं च। वेसमण काइयाणं देवाणं अभियोगाणं ॥१८॥ इस विषय में पूज्य क्षमा श्रमण कहते हैं कि - विद्याधरों की श्रेणियों से
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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