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________________ (१६०) यहां वाहा तो नहीं होता है। तच्चेदं भरत द्वेधा वैताढय गिरिणा कृतम् । . दाक्षिणात्यं भरतार्द्धमुत्तरार्द्ध तथापरम् ॥३५॥ इस तरह जो भरत क्षेत्र है वह वैताढय पर्वत से दो भागों में विभाजित होता है, इससे दक्षिणार्द्ध भरत और उत्तरार्द्ध भरत कहलाता है । (३५). . षोढा हिमवदुत्थाभ्यां भित्वा वैताढय भूधरम् । गंगा सिन्धुभ्यां कृतं तत् गत्वा पूर्वापराम्बुधी ॥३६॥ . . तथा हिमवंत पर्वत में से निकलती और वैताढय पर्वत को भेदन करती पूर्व तथा पश्चिम समुद्र में मिलने वाली गंगा और सिन्धु नदियों से इस भरत क्षेत्र का छः विभागों में विभाजन होता है । (३६.) अर्धस्य दाक्षिणात्य स्य स्याद्विष्कंभः शरोऽपिच।. .. अष्टात्रिंशद्योजनानां द्वे शते च कला त्रयम् ॥३७॥ दक्षिणार्द्ध भरत का विष्कंभ तथा शर दो सौ अड़तालीस साढ़े तीस योजन और तीन कला का होता है । (२७) योजनानां सहस्राणि नवसप्तशतानि च । जीवाष्टचत्वारिंशानि द्वादशात्र कलास्तथा ॥३८॥ इसका जीवा नौ हजार सात सौ अड़तालीस योजन और बारह कला है । (३८) धनुःपृष्टं योजनानां सहस्राणि नवोपरि । शतानि सप्त षट् षष्टिः कलैका दक्षिणार्द्धके ॥३६॥ इसका धनुः पृष्ट नौ हजार सात सौ छियासठ योजन और एक कला है । (३६) . लक्षाण्यष्टादश पंचत्रिंशदेव सहस्रकाः । चतुःशती योजनानां पंचाशीतिस्तथोपरि ॥४०॥ कला द्वादश विकला: पडित्येवं जिनेश्वरैः । दाक्षिणात्ये भरतार्द्ध सर्व क्षेत्रफलं मतम् ॥४१॥ युग्मं ॥ बाहा तु अत्र न संभवति ॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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