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________________ (१६१) अठारह लाख, पैंतीस हजार, चार सौ पचासी योजन बारह कला और छः विकला, सारे दक्षिणार्द्ध भरत का क्षेत्रफल श्री जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है । (४०-४१) बाहा तो यहां नहीं होता है। वैताढयाद्दक्षिणस्यां चोत्तरस्यां लवणार्णवात् । चतुर्दशाधिक शतं योजनानि कलास्तथा ॥४२॥ एकादशातीत्य मध्य खण्डेऽयोध्यापुरी भवेत् । नवयोजन विस्तीर्णा द्वादश योजनायता ॥४३॥ युग्मं ॥ वैताढय पर्वत से दक्षिण में और लवण समुद्र से उत्तर में एक सौ चौदह योजन और ग्यारह कला छोड़कर, मध्य खंड में नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी अयोध्या नाम से नगरी है । (४२-४३) खण्डेऽत्रैवार्य देशानां स्यात् सार्द्धा पंचविंशतिः। खण्डोऽनार्यस्ता विनासौ खण्डा: पंचापरेतथा॥४४॥ इसी मध्य खंड में साढ़े पच्चीस आर्य देश है । इसके सिवाय अन्य शेष खण्ड अनार्य है तथा अन्य पांच खंड भी अनार्य है । (४४) मध्य खण्ड गतेष्वार्य देशेष्येव भवेज्जनिः । अर्हतां चक्रिणामर्द्ध चक्रिणां शीरिणां तथा ॥४५॥ मध्य खण्ड में रहे आर्य देशों में ही तीर्थंकर भगवन्त, चक्रवन्ती, वासुदेव और बलदेव उत्पन्न होते हैं । (४५) अष्टात्रिंशे योजनानां द्वे शते त्रिकलाधिके । अतिक्रम्य हिमवतो दक्षिणस्यां तथाम्बुधेः ॥४६॥ एतावदेवातिकम्योत्तरस्यामत्र राजतः । वैताढयो मध्यस्थ इव व्यभजत् भरतं स च ॥४७॥ युग्मं ॥ हिमवंत पर्वत से दक्षिण दिशा में दो सौ अड़तीस योजन और तीन कला छोडकर तथा समुद्र से उत्तर दिशा में इतना ही भाग छोड़कर बीच में मध्यस्थ पुरुष समान रुप्यमय वैताढय पर्वत आया है । इससे भरत क्षेत्र के दो विभाग होते है । (४६-४७)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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