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दक्षिणोत्तर वर्तिन्योः जगत्योः मूल विस्तृतिः ।
भरतैरवतक्षेत्रव्यासेऽन्तर्भाव्यतां कमात् ॥२८॥
दक्षिण और उत्तर में जो, दो जगती की दिवार रही है उसके मूल का विस्तार अनुक्रम से भरत और ऐरवत क्षेत्र के विस्तार के अन्दर समझ लेना । (२८)
जगत्योः मूल विष्कम्भः पूर्व पश्चिमयोस्तु यः । स्वस्वदिक्स्थवन मुख व्यासेऽन्तर्भाव्यताम सौ ॥२६॥
इसी तरह पूर्व और पश्चिम में रही दोनों जगती के मल का विस्तार अपने अपने दिशा में रहे वन के विस्तार के अन्दर समझ लेना । (२६)
विष्कम्भो भरतस्याथ शरश्च कथितो जिनैः । षड् विशानि योजनानि शतानि पंचषट् कलाः ॥३०॥
भरत क्षेत्र का विष्कंभ तथा शर, पांच सौ छब्बीस योजन और छः कला है । (३०)
चतुर्दश सहस्राणि चतुःशत्येक सप्ततिः । योजनान्यस्य जीवा स्यात्किचिद्नाश्च षट्कलाः ॥३१॥
इसका जीवा चौदह हजार चार सौ इकहत्तर योजन और कुछ कम छः कला का है । (३१)
धनु:पृष्टं सहस्राणि चतुर्दश तथोपरि ।
अष्टाविंशा पंचशती कला एकादशाधिकाः ॥३२॥ ..
इसका धनुः पृष्ट चौदह हजार पांच सौ अट्ठाईस योजन और ग्यारह कला है । (३२) .. .
योजनानां त्रिपंचाशत् लक्षा अशीतिरेव च । सहस्राणि षट् शतानि तथैकाशीतिरित्यथ ॥३३॥ कलाः सप्तदश तथा तावत्यो विकला अपि । एतावत् भरतक्षेत्रे प्रोक्तं क्षेत्रफलं जिनैः ॥३४॥
वाहा तु अत्र न संभवति ॥ इसका क्षेत्रफल तिरपन लाख अस्सी हजार छ: सौ और इक्यासी योजन, सत्रह कला व सत्रह विकला है । इस तरह भरत क्षेत्र में श्री जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है । (३३-३४)