SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१८६) दक्षिणोत्तर वर्तिन्योः जगत्योः मूल विस्तृतिः । भरतैरवतक्षेत्रव्यासेऽन्तर्भाव्यतां कमात् ॥२८॥ दक्षिण और उत्तर में जो, दो जगती की दिवार रही है उसके मूल का विस्तार अनुक्रम से भरत और ऐरवत क्षेत्र के विस्तार के अन्दर समझ लेना । (२८) जगत्योः मूल विष्कम्भः पूर्व पश्चिमयोस्तु यः । स्वस्वदिक्स्थवन मुख व्यासेऽन्तर्भाव्यताम सौ ॥२६॥ इसी तरह पूर्व और पश्चिम में रही दोनों जगती के मल का विस्तार अपने अपने दिशा में रहे वन के विस्तार के अन्दर समझ लेना । (२६) विष्कम्भो भरतस्याथ शरश्च कथितो जिनैः । षड् विशानि योजनानि शतानि पंचषट् कलाः ॥३०॥ भरत क्षेत्र का विष्कंभ तथा शर, पांच सौ छब्बीस योजन और छः कला है । (३०) चतुर्दश सहस्राणि चतुःशत्येक सप्ततिः । योजनान्यस्य जीवा स्यात्किचिद्नाश्च षट्कलाः ॥३१॥ इसका जीवा चौदह हजार चार सौ इकहत्तर योजन और कुछ कम छः कला का है । (३१) धनु:पृष्टं सहस्राणि चतुर्दश तथोपरि । अष्टाविंशा पंचशती कला एकादशाधिकाः ॥३२॥ .. इसका धनुः पृष्ट चौदह हजार पांच सौ अट्ठाईस योजन और ग्यारह कला है । (३२) .. . योजनानां त्रिपंचाशत् लक्षा अशीतिरेव च । सहस्राणि षट् शतानि तथैकाशीतिरित्यथ ॥३३॥ कलाः सप्तदश तथा तावत्यो विकला अपि । एतावत् भरतक्षेत्रे प्रोक्तं क्षेत्रफलं जिनैः ॥३४॥ वाहा तु अत्र न संभवति ॥ इसका क्षेत्रफल तिरपन लाख अस्सी हजार छ: सौ और इक्यासी योजन, सत्रह कला व सत्रह विकला है । इस तरह भरत क्षेत्र में श्री जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है । (३३-३४)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy