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________________ (१८६) विवक्षितस्य क्षेत्रस्य पूर्वापरान्त गोचरः । आयामः परमो योऽत्र सा जीवेत्यभिधीयते ॥७॥ . प्रत्येक क्षेत्र की पूर्व से लेकर पश्चिम तक की ऊँचाई है वह जीवा कहलाती है । (७) विवक्षित क्षेत्रजीवा पूर्वापरान्तसीमया । योऽब्धिस्पर्शी परिक्षेपो धनुः पृष्ठं तचिरें ॥८॥. प्रत्येक क्षेत्र के जीवा के पूर्व और पश्चिम के किनारे से जो समुद्र तक पंहुचती परिधि है उनका नाम धनुः पृष्ठ है । (८). पूर्वक्षेत्रधनुःपृष्टाद्धनुःपृष्मेऽग्रिसेऽधिकम् । .... खण्डं वक्र बाहुवद्यत्सा बाहेत्यभि धीयते ॥६॥ . • प्रत्येक क्षेत्र के पूर्व के धनुःपृष्ट से आगे धनुःपृष्ट में ढेड़ हाथ से समान अधिक खंड हो वह बाहा कहलाता है । (६) : विवक्षितस्य क्षेत्रस्य यानि योजनमात्रया । खण्डानि सर्वक्षेत्रस्य तत् क्षेत्रफलमुच्यते ॥१०॥ प्रत्येक क्षेत्र के एक योजन लम्बा-चौड़ा जितने खंड होते है, उस क्षेत्र का क्षेत्रफल कहलाता है । (१०) उच्चत्वस्यापि यन्मानं सर्वतो योजनादिभिः । एतत् घनक्षेत्रफलं पर्वतेष्वेव सम्भवेत् ॥११॥ प्रत्येक वस्तु का सर्व की ओर का अर्थात् लम्बाई-चौड़ाई और ऊँचाई का जो प्रमाण है वह धन क्षेत्र कहलाता है, ऐसा क्षेत्रफल पर्वतों का ही होता है । (११) छिन्न स्यैकोनविंशत्या विभागो योजनस्य यः । . . सा कला ताभिरेकोनविंशत्या पूर्ण योजनम् ॥१२॥ एक योजन का उन्नीसवां विभाग कला कहलाता है । अर्थात् ऐसी उन्नीस कला का एक योजन कहलाता है । (१२) एकोनविंशतितमः कलाया अपि यो लवः । .. विकला ताभिरेकोनविंशत्येका कला भवेत् ॥३॥. इति परिभाषा ॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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