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________________ (१८५) सोलहवां सर्गः द्वीपस्यास्याथ पर्यन्ते स्थितं दक्षिणगामिनी । नानावस्थं कालचक्रैः भरतं क्षेत्रमीरितम् ॥१॥ इस जम्बू द्वीप के दक्षिण दिशा के अन्तिम विभाग में भरत क्षेत्र आया है । जो काल चक्र के कारण अलग-अलग अवस्था को प्राप्त करता है । (१) अधिज्यधनुराकारं स्पृष्टं तच्च पयोधिना । पूर्व पश्चिमयोः कोटयोः पृष्ट भागे च सर्वतः ॥२॥ प्रत्यंचा (धनुष्य की डोरी) चढाकर तैयार किये धनुष्य की जैसी आकृति होती है, वैसी भरत क्षेत्र की आकृति है । इसके पूर्व और पश्चिम के किनारे पर और सम्पूर्ण पीछे के विभाग में समुद्र आया है । (२) यो योऽत्रोपद्यतेक्षेत्रेऽधिष्ठाता पल्यजीवितः । तमाह्वयन्ति भरतं तस्य सामानिकादयः ॥३॥ कल्पस्थितिपुस्तकेषु तथा लिखितदर्शनात् । तत्स्वामिकत्वात् भरतं किंचेदं नाम शाश्वतम् ॥४॥ एक पल्योपम की आयुष्य वाला इसका अधिष्ठाता देव है, और इसके सामानिक आदि देव 'भरत' नाम से बुलाते हैं। यह बात कल्प आचार ग्रन्थों में कही है । इस कारण से इस क्षेत्र का नाम भरत क्षेत्र में आता है अथवा तो यह भरत क्षेत्र शाश्वत नाम ही है । (३-४) अत्र क्षेत्रादि प्रमाणं घोढा विष्कम्भतस्तथा । इषुजीवाधनु:पृष्ट बाहाक्षेत्रफलैः बुवे ॥५॥ यहां मैं इस भरत क्षेत्र का प्रमाण छः प्रकार से कहता हूँ । वह इस प्रकार१- विष्कंभ २- शर, ३- जीवा, ४- धनुः पृष्ट ५- वाहा और ६- क्षेत्रफल । (५) तत्र विष्कम्भः प्रतीतः । शेषाणां तु इमानि लक्षणानि ॥ विवक्षितस्य क्षेत्रस्य जीवाया मध्य भागतः । विष्कम्भो योऽर्णवं यावत् स इषु परिभाषितः ॥६॥ विष्कंभ, यह चौड़ाई से तो प्रसिद्ध है शेष पांच लक्षण आगे कहते है :प्रत्येक क्षेत्र में भी जीवा के मध्य भाग से समुद्र तक का जो विष्कंभ है वह इषु अथवा शर कहलाता है । (६)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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