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________________ (१८४) ये सात क्षेत्र इस प्रकार - प्रथम भरत, दूसरा हैमवत तीसरा हरिवर्ष चौथा महाविदेह पांचवा रम्यक छठा हैरण्यवत और सातवं ऐरावत है । (२५६-२६०) आद्य द्वितीययोर्मध्ये हिमवान्नामपर्वतः । . महाहिमवदद्रिश्च द्वेतीयिकतृतीय योः ॥२६१॥ ततीय तुर्ययोरन्तर निषधो नाम सानुमान् । तुर्य पंचमयोनीलवान्नगः सीमकारकः ॥२६२॥ रूप्यी शैलः क्षेत्रयोः स्यात मध्ये पंचमषष्ठयोः । षष्ठ सप्तमयो श्चैव शिखरी भूधरोऽन्तरे ॥२६३॥ इन दो-दो क्षेत्र के बीच में एक-एक पर्वत आया है । वे छः पर्वत हैं, वह इस प्रकार - प्रथम और दूसरे क्षेत्र के बीच १- हिमवान पर्वत २- दूसरे और तीसरे के बीच ३- महाहिमवान पर्वत तीसरे और चौथे के बीच ३-निषध पर्वत । चौथे और पांचवे के बीच नीलवान पर्वत । पांचवा और छठे के बीच ५- रूकमी पर्वत और छठे सातवें के बीच ६ शिखरी पर्वत हैं । (२६१-२६३) . . . वर्ष वर्ष धरनाम्मावतो, द्वीप एष कथितो यदोधतः । तद्विशेषविधिवर्णनेच्छयोद्देश एव विहितोऽवसीयताम् ॥२६४॥ यहां जम्बू द्वीप के क्षेत्र और पर्वतों का नाम मात्र ही से वर्णन किया है इससे समझना कि अभी विशेष वर्णन करने की इच्छा मेरी है उसका उद्देश किया गया है । (२६४) विश्वाश्चर्यद कीर्ति कीर्ति विजय श्री वाचकेन्द्रान्तिष - - द्राज श्री तनयोऽतनिष्ट विजयः श्री तेजपालात्मजः। काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे । सर्ग:पंचदशः समाप्तिमगमसिद्धान्तसारोज्जवलः ॥२६॥ इति पंच दशः सर्गः जगत के आश्चर्य रूप में गीत गाने वाले सुकीर्ति वाले, श्री कीर्ति विजय वाचकेन्द्र के शिष्य और पिता तेजपाल तथा माता राज श्री के सुपुत्र श्री विजय विजय जी उपाध्याय ने जगत के निश्चित तत्वों को दीपक के समान प्रकाशित करने वाले जो इस काव्य ग्रन्थ की रचना की है, उस सिद्धान्त के सार रूप सुभग यह पंद्रहवां सर्ग समाप्त होता है । (२६५) - सर्ग पन्द्रहवां समाप्त - . .
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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