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________________ (१८३) इसी तरह सर्व द्वीप समुद्र तथा जगती के द्वार के देवों की नगरी अपनेअपने द्वीप समुद्र के नाम वाले अन्य द्वीप समुद्रों में है । (२५२) अथास्य जम्बूद्वीपस्य द्वाराणामन्तरं मिथः । द्वार विस्तार रहित परिधेः पादसंमितम् ॥२५३॥ अब इस जम्बू द्वीप के चार द्वारों का परस्पर अन्तर इसकी परिधि में से चार द्वार की चौड़ाई कम करने से जो आता है उसका चतुर्थांश सदृश है । (२५३) अर्ध पंचम विस्तारं द्वारमे कै क मग्रतः । अष्टादश योजनानि तैरूनं परिधिं कुरु ॥२५४॥ ___ ३१६२०६ योजन ३ क्रोश १२८ धनुष्य १२ अंगुल ॥ तस्या तुर्यांश एकोनाशीतिः खलु सहस्रकाः । योजनानि द्विपंचाशत् क्रोशश्चैकस्तथाधिकः ॥२५५॥ सार्द्ध सहस्रं धनुषां द्वात्रिंशच्चाप संयुतम् । त्रीण्यंगुलानि त्रियवीयूके द्वे साधिके इति ॥२५६॥ जैसे कि प्रत्येक द्वार साढ़े चार योजन चौड़ा होने से चार द्वार का जोड़ अठारह योजन होता है । इस अठारह योजन को इसकी परिधि में से कम करते ३, १६, २०६, योजन, ३ कोश, १२८ धनुष्यं व १३ अंगुल रहता है इसका चतुर्थांश अर्थात् ७६०५२ योजन १ कोस १५३२ धनुष्य ३ अंगुल ३जौ और जू होता है । (२५४-२५६) इत्यस्य जम्बूद्वीपस्य वहिर्भागो निरूपितः । अथैतस्य मध्य भागो यथा यथाम्नायं निरूप्यते ॥२५७॥ क्षेत्राणि सप्त सन्त्यस्य जम्बू द्वीपस्य मध्यतः । एकै कैन पर्वतेनान्तरितानि परस्परम् ॥२५८॥ यहां तक जम्बू द्वीप के बाहरी विभाग का वर्णन किया है। अब इसके अन्दर के विभाग का परम्परा अनुसार वर्णन करते हैं । इस जम्बूद्वीप के अन्दर सात क्षेत्र है । और वे एक दूसरे के बीच आए पर्वतों से अलग होते हैं । (२५७-२५८) प्रथमं भरतक्षेत्रं परं हैमवताभिधम । तृतीयं हरिवर्षाख्यं तुर्यं महाविदेहकम् ॥२५६॥ पंचम रम्यकं षष्टं है रण्यवतमीरितम् । ऐरावतं सप्तमं चान्तरामूनि नगा इमे ॥२६०॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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