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इस शय्या की उत्तर दिशा में पूर्वोक्त इन्द्र ध्वज के समान एक छोटा इन्द्र ध्वज है और पश्चिम दिशा में एक शस्त्र भंडार है उस शस्त्र भंडार में दंड रत्न आदि अनेक प्रकार के शस्त्र हैं । इस प्रकार से सुधर्मा सभा का थोड़ा वर्णन हुआ है । (२३१-२३१)
अस्याश्चोत्तर पूर्वस्यां सिद्धायतनमुत्तमम् । आयामादिप्रमाणेन तत् सुधर्मासमासभम् ॥२३३॥
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इस सुधर्मा सभा के ईशान कोण में एक श्रेष्ठ सिद्धायतन है । उसकी लम्बाई चौड़ाई आदि मान इस सभा के अनुसार होते ही है । (१३३)
तस्य मध्यदेशे भागे एक योजन मेदुरा ।
भाति द्वियोजनायाम विष्कम्भा मणि पीठिका ॥२३४॥
इस सिद्धायतन के मध्य भाग में एक योजन मोटी और दो योजन लम्बी चौड़ी एक मणि पीठिका है । (२३४)
उपर्यस्या रत्नमयोऽधिकाद्वियोजनोन्नतः ।
द्वियोजनायतततो देवच्छन्दक आहितः ॥ २३५॥
इस मणि पीठिका के ऊपर ऊँचाई में दो योजन से अधिक और लम्बाई चौड़ाई में दो योजन एक रत्नमय देवच्छंदक है । (२३५)
इदं श्री जीवाभिगम वृत्तौ ॥ क्षेत्र समास वृहद् वृत्तौ तु असौ द्वि योजन प्रमाण विष्कम्भोच्चत्व उक्तः ॥
यह अभिप्राय जीवाभिगम सूत्र का है, क्षेत्र समास की बड़ी टीका में तो इसकी ऊँचाई चौड़ाई दो योजन की कही है ।
तस्मिन् देवच्छन्दके च सुरासुर नमस्कृतम् ।
जयत्यर्ह प्रतिमानां शतमष्टोत्तरं किल ॥ २३६ ॥
इस देवच्छंद में सुर और असुरों के वंदनीय ऐसे श्री अरिहंत प्रभु की एक सौ आठ प्रतिमाएं हैं । (२३६)
तस्य सिद्धायतनस्य विभात्युत्तरपूर्ववत् ।
उपपात सभा सापि सुधर्मेव प्रमाणत ॥ २३७॥
इस सिद्धायतन से ईशान कोण में सुधर्मा सभा समान ही उपपात सभा भी शोभ रही है। (२३७)