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________________ (१७६) कियत्कालव्यतिक्रान्तौ सिक्तौ महत्तरैः सुरैः । बभूवतुः प्रशान्तौ तौ किंवा सिद्धयेन्न तज्जलात् ॥२२७॥ युग्मं। इस विषय में श्राद्ध विधि प्रकरण ग्रन्थ की टीका में कहा है कि - एक मकान के मालिकी के अधिकार के लिए जैसे दो मनुष्यों के बीच कई बार लड़ाई झगड़ा होता है । वैसे एक समय में नये उत्पन्न हुए सौ धर्मेन्द्र और ईशानेन्द्र के बीच अमुक विमान के लिए विवाद हो गया । विमान को लेने के लिए दोनों के बीच बड़े-बड़े युद्ध हुए । तिर्यंच की लड़ाई को मनुष्य रोक सकता है, मनुष्य की लड़ाई राजा रोकवा सकता है, राजाओं के युद्ध कभी देव रोक सकता है और देवों का इन्द्र निवारण कर सकता है, परन्तु इन्द्र, इन्द्र के मध्य युद्ध, जो वज्र की अग्नि समान दुःनिवार्य है उसे कौन रोक सकता है ? परन्तु उस समय में कुछ समय के व्यतीत होने के बाद महत्तर देवों ने. माणवक नामक स्तंभ में रही श्री जिनेश्वर भगवन्त की दाढ़ का प्रत्येक को असह्य व्याधि शान्त करके उन दोनों इन्द्रो को शान्त किया था । क्योंकि इस जल से कैसा भी कार्य हो सिद्ध होता है । (२२२-२२७) स्तंभस्य तस्य पूर्वस्यामस्त्येका मणिपीठिका । अर्द्ध योजन बाहल्या योजनायत विस्तृता ॥२२८॥ उपर्यस्या महदेकं सिहासनमनुत्तरम् । स्तंभस्यास्य पश्चिमायां तथान्या मणि पीठिका ॥२२६॥ सापि योजन विष्कम्भायामा द्विक्रोश मेदुरा । उपरि स्वर्ण माणिक्य शयनीय मनोहरा ॥२३०॥ इस माणवक स्तंभ की पूर्व दिशा में आधा योजन मोटा और एक योजन लम्बा चौड़ा एक मणि पीठिका है इसके ऊपर एक अनुपम सिंहासन है । इस स्तंभ की पश्चिम दिशा में एक और मणि पीठिका है वह भी आधा योजन मोटा और एक योजन लम्बा चौड़ा है । उसके ऊपर सुवर्ण और माणिक्य रत्न की मनोहर शय्या है । (२२६-२३०) तल्पादुदीच्यां क्षुल्लेन्द्र ध्वजः पूर्वोक्त केतुवत् । मानतोऽस्मात् पश्चिमायां कोशः प्रहरणौः भृतः ॥२३१॥ तस्मिन् परिधरत्नादि नाना प्रहरणानि च । किंचिदेवं सुधर्मायाः स्वरूपमुपवर्णितम् ॥२३२।।
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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