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इस सुधर्मा सभा के मध्य भाग में दो योजन लम्बी-चौड़ी तथा एक योजन मोटी मणि पीठिका है । इसके ऊपर साढे सात योजन ऊँचा तथा आधा कोस मोटा और चौड़ा माणवक नाम का महान चैत्य स्तंभ है । (२१६-२१७)
उपर्यधस्त्वसौ स्तंभः षट् षट् क्रोशान् विहाय च। मध्यांशेऽष्टादशक्रोशे रैरूप्यफलकांचित्तः ॥२१८॥
इस चैत्य स्तंभ नीचे ऊपर के डेढ़-डेढ़ योजन छोड़कर शेष साढ़े चार योजन से सोने-चान्दी के तख्तो से शोभायमान हो रहा है । (२१८)
प्राग्वत्तेषु नागदन्ताः निरूद्धाः वज्र सिक्यकैः । तेषु वज्र सिक्यकेषु वृत्ताः वज्र समुद्गकाः ॥२१६॥ तेषु वगै समुदगेषु जिन सक्थी नि सन्ति च । . . विजय स्वर्गिणान्यै श्चार्चितानि व्यन्तरा मरैः ॥२२०॥.
उसमें रही वज्रमय खूटियों पर भी पूर्व के समान वज्र के छिक्के लगे हैं और उन छिक्कों में वज्र मय डिब्बे हैं । इन डिब्बों में विजय देव तथा अन्य व्यन्तर देवों द्वारा पूजा के लिए रक्खी श्री जिनेश्वर भगवान की अस्थियां होती हैं । (२१६-२२०)
पूज्यत्वमेषां सक्थना तु तादृग्महिम योगतः । यदेतत्क्षालनजलं सुराणामपि दोषहत् ॥२२१॥
अस्थि (भगवान के शरीर की हड्डी) की महिमा महान है । इसके कारण पूज्य है, क्योंकि इसके प्रक्षालन जल से देव भी दोषों का निवारण करते हैं । (२२१)
नत्वोत्पन्नतया तर्हि सौधर्मेशानशकयोः । विवादोऽभूद्विमानार्थं हार्थमिव हर्मिणोः ॥२२२॥ तयोरिवोर्वीश्वरयोः विमान विप्रलुब्धयोः । नियुद्धादिमहायुद्धान्यप्यभूवन्ननेकशः ॥२३३॥ निवार्यते हि कलहः तिरश्चां तरसा नरैः । नराणां च नराधीशैः नराधीशां सुरैः क्वचित् ॥२२४॥ सुराणां च सुराधीशैः सुराधीशां पुनः कथम् । केन वा स निवार्येत वनाग्निरिव दुःशमः ॥२२५॥ माणवकाख्यस्तंभस्थाहइंष्ट्रा शान्तिवारिणा । साधि व्याधि महा दोष महावैर निवारिणा ॥२२६॥