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________________ (१७७) इस प्रकार से सुधर्मा सभा के बाहरी विभाग का वर्णन किया अब आम्नाय अनुसार इसके मध्यभाग का वर्णन करते हैं । (२०६) तस्यां सुधर्मा सभायां षट् सहस्राणि पीठिकाः । द्वे सहने दिशि प्राच्या पश्चिमायां तथैव च ॥२१०॥ दक्षिणस्यामुत्तरस्यां तासां सहस्रमेककम् । ताः सर्वा अपिरैरूप्यफलकैः खचिता ध्रुवम् ॥२११॥ युग्मं । नागदन्ता वज्रमायाः फलकेष्वथ तेष्वपि । सुगन्धिपुष्पदामानि लम्बमानान्यनेकशः ॥२१२॥ इसके अन्दर दो हजार पूर्व दिशा में, दो हजार पश्चिम दिशा में, एक हजार दक्षिण दिशा में, और एक हजार उत्तर दिशा में, इस तरह कुल मिलाकर छः हजार, रूपा (चान्दी) के बैठने वालों के आसन है उन आसनों के ऊपर वज्रमय की खूटिया है, जिनमें सुगन्धि पुष्पों की अनेक मालाएं लटकी रहती हैं । (२१०२१२) सुधर्मायां सभायां च स्युः धूपवास पीठिकाः । षट् सहस्त्राणि ताः प्राग्वत् भावनीया यथा क्रमम् ॥२१३॥ एता अपि स्वर्णरूप्यफलकैरूपशोभिताः । फलकेषु लसद्वजनागदन्ता अमीषु च ॥२१४॥ वाज्रिकानि सिक्यकाणि सिक्यकेषु च वज्रजाः । उगिरन्त्यो धूपघट्यो धूपधूममहर्निशम् ॥२१५॥ इस सुधर्मा सभा में पूर्व कहे अनुक्रम से ही छः हजार धूप वास की पीठिकायें है, ये पीठिका ये सोने के रूप के तख्तों से शोभायमान हो रही हैं, उनमें मनोहर वज्रमय खुटियां है, प्रत्येक खूटी में वज्र के छिक्का लगे हैं और उन छिक्को में वज्रमय धूपदानी है जिसमें दिनरात धूप का धुंआ निकलता ही रहता है। (२१३-२१५) तथैतस्याः सुधर्माया मध्येऽस्ति मणिपीठिका । योजनद्वय विष्कम्भायामा योजनमेदुरा ॥२१६॥ चैत्यस्तंभ उपर्यस्या महान् माणवकाभिधः । सार्द्धसप्तयोजनोच्चः क्रोशार्द्धस्थूलविस्तृतः ॥२१७॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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