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अर्ध योजन बाहल्या योजनायत विस्तृता । तस्यां मणी पीठिकाच्छा दिव्य शय्यास्ति तत्र च ॥२३८॥ युग्मं ॥ तस्यां विजयदेवस्योपपातो बोभवीत्यथ ।
अस्यां उत्तरपूर्वस्यां दिशि चैको पहाहृद् ॥२३६॥
उसमें आधा योजन मोटी और एक योजन लम्बी-चौड़ी एक स्वच्छ मणि पीठिका है, और उसके ऊपर एक दिव्य शय्या है । इस शय्या में विजय देव उत्पन्न होता है । वहां से उत्तर पूर्व के बीच ईशान कोने में एक मोटा हृद (सरोवर) है। (२३८-२३६)
नन्दापुष्करिणी तुल्यो विष्कम्भोद्वेधदैय॑तः ।
वेष्टि तोवनखंडे न पद्मवेदिकयाणिा च ॥२४०॥
उसकी लम्बाई चौड़ाई और ऊँचाई नंदा पुष्करिणी के अनुसार है, और उसके चारों तरफ एक पद्म वेंदिका और एक बाग भी आया है । (२४०)
हदस्योत्तरपूर्वस्यामभिषेक सभामत्र च । सिहासन पीठिकायां विजयोऽत्राभिषिच्यते ॥२४१॥
इस हृद- सरोवर की ईशान दिशा में अभिषेक समा आति है, उसमें सिंहासन की पीठिका ऊपर विजयदेव का अभिषेक करते हैं । (२४१)
इतोऽप्युत्तरपूर्वस्यां स सिंहासनपीठिका । अलंकार सभा तत्र भूष्यते विजयामरः ॥२४२॥
वहां से भी ईशान कोण में सिंहासन और पीठिका से युक्त अलंकार सभा है वहां विजय देव अलंकार धारण करता है । (२४२)
अस्या उत्तरपूर्वस्यां व्यवसायसभात्र च । सिंहासन पीठिकायां विजयस्य च पुस्तकः ॥२४३॥ . स्वर्णरूप्यमणिमयः समस्तस्थितिसूचकः ।
सपीठि के सभे चैते उपपातसभासमे ॥२४४॥ युग्मं ।
इसके भी ईशान कोने में व्यवसाय सभा है, वहां भी सिंहासन और पीठिका है और इसके ऊपर विजयदेव की पुस्तक रही है, जो सोने-रूपे और मणि की है वह सर्व स्थिति की सूचक है । इस पीठिका और दोनों सभा का सर्व स्वरूप 'उपपात सभा' के समान समझ लेना । (२४३-२४४)