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________________ (१७३) एक मूल प्रासाद के बिना ये सब तीन सौ चालीस प्रसाद विजय देव के योग्य एक-एक सिंहासन से विभूषित है । (१८५) अथास्त्युत्तर पूर्व स्यां मूल प्रासादतः सभा । सुधर्मा नाम सतत दिव्य नाटयाप्सरोभृता ॥१८६॥ मूल प्रासाद से ईशान कोण में हमेशा दिव्य नाटक करने वाली अप्सराओं से युक्त सुधर्मा नाम की सभा आयी है । (१८६) योजनानि द्वादशैषा सा न्यायामतोमता । सक्रो शानि योजनानि षड् विष्कम्भत ईरिता ॥१८७॥ योजनानि नवोत्तुंगा द्वारस्त्रिभिरलंकृता । प्राच्यामुदीच्यां चापाच्यामेकैकमथ तान्या पि ॥१८८॥ यह सभा साढ़े बारह योजन लम्बी; छ: योजन और एक कोस चौड़ी तथा नौ योजन ऊँची है एवं इसके पूर्व उत्तर और दक्षिण दिशा में एक-एक द्वार आया है । (१८७-१८८) द्वे योजने उच्छ्रितानि योजनं विस्तृतानि च । - तेषां पुस्तादेकै कः प्रत्येकं मुख मंडपः ॥१८६॥ युग्मं ॥ वह द्वार दो योजन ऊँचा और एक योजन चौड़ा है और उसको आगे एक मुख मंडप है । (१८६) : तेऽप्युत्तप्ततपनीयचन्द्रोदयविराजिताः । सातिरेके योजन द्वे समुत्तुंगा मनोरमाः ॥१६०॥ ते सुधर्माससभातुल्या विष्कम्भायामतः पुनः । तेषां पुरस्तादेकै कः स्यात्प्रेक्षागृहमंडपः ॥१६१॥ यहां नपे हुए सुवर्ण समान मनोहर, चन्द्रमा से भी अत्यन्त शोभायमान होता है । यह मंडप ऊँचाई में दो योजन और लम्बाई-चौड़ाई में सुधर्मा सभा के समान है । (१६०-१६१) मुख मंडप तुल्यास्ते प्रमाणैः सर्वतो मताः । प्रत्येकं तेष्वक्षपाटश्चतुरस्त्राकृतिः स्मृतः ॥१६२॥ इन मुख मंडपो के आगे इतने ही प्रेक्षा (देखने के ) मंडप हैं, जिनमें चौरस अक्ष पाट प्रत्यक्ष रहे हैं । (१६२)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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