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एक मूल प्रासाद के बिना ये सब तीन सौ चालीस प्रसाद विजय देव के योग्य एक-एक सिंहासन से विभूषित है । (१८५)
अथास्त्युत्तर पूर्व स्यां मूल प्रासादतः सभा । सुधर्मा नाम सतत दिव्य नाटयाप्सरोभृता ॥१८६॥
मूल प्रासाद से ईशान कोण में हमेशा दिव्य नाटक करने वाली अप्सराओं से युक्त सुधर्मा नाम की सभा आयी है । (१८६)
योजनानि द्वादशैषा सा न्यायामतोमता । सक्रो शानि योजनानि षड् विष्कम्भत ईरिता ॥१८७॥ योजनानि नवोत्तुंगा द्वारस्त्रिभिरलंकृता । प्राच्यामुदीच्यां चापाच्यामेकैकमथ तान्या पि ॥१८८॥
यह सभा साढ़े बारह योजन लम्बी; छ: योजन और एक कोस चौड़ी तथा नौ योजन ऊँची है एवं इसके पूर्व उत्तर और दक्षिण दिशा में एक-एक द्वार आया है । (१८७-१८८)
द्वे योजने उच्छ्रितानि योजनं विस्तृतानि च । - तेषां पुस्तादेकै कः प्रत्येकं मुख मंडपः ॥१८६॥ युग्मं ॥
वह द्वार दो योजन ऊँचा और एक योजन चौड़ा है और उसको आगे एक मुख मंडप है । (१८६) :
तेऽप्युत्तप्ततपनीयचन्द्रोदयविराजिताः । सातिरेके योजन द्वे समुत्तुंगा मनोरमाः ॥१६०॥ ते सुधर्माससभातुल्या विष्कम्भायामतः पुनः । तेषां पुरस्तादेकै कः स्यात्प्रेक्षागृहमंडपः ॥१६१॥
यहां नपे हुए सुवर्ण समान मनोहर, चन्द्रमा से भी अत्यन्त शोभायमान होता है । यह मंडप ऊँचाई में दो योजन और लम्बाई-चौड़ाई में सुधर्मा सभा के समान है । (१६०-१६१)
मुख मंडप तुल्यास्ते प्रमाणैः सर्वतो मताः । प्रत्येकं तेष्वक्षपाटश्चतुरस्त्राकृतिः स्मृतः ॥१६२॥
इन मुख मंडपो के आगे इतने ही प्रेक्षा (देखने के ) मंडप हैं, जिनमें चौरस अक्ष पाट प्रत्यक्ष रहे हैं । (१६२)