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________________ (१७१) प्राच्यामग्रमहिषीणामासनानि चतसृणाम् । चत्वार्येवातिचतुरपरीवारसुरीजुषाम् ॥१७१॥ मूल सिंहासनादग्निकोणेऽभ्यन्तरपर्षदः । भद्रासन सहस्राणि भवन्त्यष्टौ सुधाभुजाम् ॥१७२॥ दक्षिणस्यां दिशि तथा भान्ति मध्यम पर्षदः । दशासनसहस्राणि ताव ताममृताशिनाम् ॥१७३॥ भद्रासन नैर्ऋत्यां बाह्य पर्षत्सुधाभुजाम् । स्युः द्वादशसहस्राणि पश्चिमायामथो दिशि ॥१७४॥ सेना पंक्तीनां सप्तानां सप्त भद्रासनानि च । ततः परं परिक्षेपे द्वितीयस्मिंश्चतुर्दिशम् ॥१७५॥ वह इस तरह है - मूल सिंहासन वायत्य, उत्तर, और ईशान में तीन तरफ सामानिक देवों के चार हजार आसन हैं, पूर्व दिशा में अति चतुर परिवार वाली अग्र महिषि के चार आसन हैं, अग्नि कोण में अभ्यन्तर पर्षदा देवों के आठ हजार आसन है, दक्षिण दिशा में मध्यम पर्षदा के देवों के दश हजार भद्रा आसन है नैऋत्य में बाह्य पर्षदा के देवों के लिए बारह हजार भद्रासन है तथा पश्चिम में सात सेनापतियों के सात भद्रासन होते हैं। . चत्वारि. चत्वारि सहस्राणि भान्ति चतुर्दिशम् । आत्मरक्षक देवानां सहस्राणीति षोडश ॥१७६।। उसके बाद दूसरे वलय में आत्म रक्षक देवों के चार दिशाओं में चार-चार हजार मिलाकर कुल सोलह हजार आसन है । (१७६) स चैष मूलप्रासादः चतुः प्रासाद वेष्टितः । उच्च त्वायाम विष्कम्यैः ते ऽर्धमानाश्च मौलतः ॥१७७॥ पूर्व में जो एक मूल प्रासाद कहा है - उसके आस-पास चार प्रासाद हैं । वह इस मूल प्रसाद से ऊँचाई और लम्बाई-चौड़ाई में आधी है । (१७७) प्रासादस्तेऽपि चत्वारः चतुर्भिरपरैरपि । स्व प्रमाणार्द्धमानैः प्रत्येकं परितो वृताः ॥१७॥ परिवारपरीवारभूता एते च मौलतः । चतुर्थ भागमानेन प्रोत्तुंगायत विस्तृताः ॥१७६।।
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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