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________________ (१६६) प्रत्येक नौवे के दोनों ओर से जो आठ आठ भूगर्भ प्रसाद है उन प्रत्येक एक-एक बड़ा रत्नमय भद्रासन है । (१५६) तथा तस्या राजधान्या बहिर्दिक्षु चतसृषु । योजनानां पंचशत्याः पुरतो वनमेककम् ॥१५७॥ प्राच्यामशोकविपिनमपाच्यां साप्तपर्णिकम् । प्रतीच्यां चम्पकवनमुदक् चूतवनं क्रमात् ॥१५८॥ उस राजधानी के बाहर चारों दिशाओं में पांच सौ - पांच सौ योजन जाने के बाद एक-एक वन आता है । वहां पूर्व दिशा में अशोक वन है, दक्षिण मेंसप्त पर्ण वन, पश्चिम में चंपक वन है, और उत्तर दिशा में आम्रवन है । (१५७-१५८) सहस्राणि योजनानां द्वादशायामतोऽथ ते ।। स्युः पंचशतविष्कम्भा वन.खण्डा पृथक् पृथक् ॥१५६॥ वहां प्रत्येक वन अलग-अलग रूप में बारह हजार योजन लम्बा तथा पांच सौ योजन चौड़ा है। प्रत्येकं वप्रवलयपरिक्षिप्ताः समन्ततः । मध्ये तेषा तथैकैकः स्यात् प्रासादावतंसकः ॥१६०॥ प्रत्येक वन की चारो ओर किला भी है और प्रत्येक में एक-एक सुन्दर प्रासाद भी है । (१६०) द्वाषष्टिं योजनान्यर्द्धाथिकानि ते समुन्नताः । योजनान्येकत्रिंशत् सक्रोशानि च विस्तृता ॥१६१॥ वे सभी प्रासाद साढ़े बासठ योजन ऊँचे और सवा इक्तीस योजन विस्तार वाले हैं । (१६१) प्रत्येकं रत्नघटित सिंहासनविभूषिताः । पल्योपमरायुरेकैक निर्जराधिष्ठिता अपि ॥१६२॥ प्रत्येक रत्नघटित सिंहासन से विभूषित है और पल्योपम के आयुष्य देव द्वारा अधिष्ठित है । (१६२) मध्येऽथास्या राजधान्या भूमि भागे मनोहरे । शुद्धजाम्बूनदममः पीठबन्धो विराजते ॥१६३॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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